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वीरसेवामन्दिर, उसका काम और भविष्य
[ले-बा० माईदयाल जैन बी० ए० (ऑनर्स) बी०टी०]
अण्डारकर इन्स्टीट्यूट ( !Bhandurkar Ins. भव न करे तो माश्चर्यकी कोई बात नहीं है । इस
titute) पूनाका नाम शास्त्रसंग्रह, साहित्यिक- लापर्वाही और उपेक्षाभावके कारण जैन समाजने खोज, पुरात्व-सम्बन्धी अनुमंधानके लिए आज अपनी जो हानि की है उसकी क्षतिपूर्ति होना तो भारतवर्ष में ही नहीं, किन्तु सारे संसारमें विख्यात कठिन है ही, पर साथ ही उसने अपने लिए ज्ञानहै। यह संस्था संस्कृत साहित्य तथा भारतीय इति- के स्रोतोंको जो बन्द करलिया और अपनी महाहासके लिए कितना काम कर रही है, इसका अन्दा- शास्त्र-सम्पत्तिको अपनी गलतीसे नष्ट होने दिया ज़ा इस बातसे लगाया जासकता है कि आज वहाँ वह बड़ी ही चिन्ताका विषय है। देवगुरु-शास्त्रकी पचामों उच्चकोटिके विद्वान अनुसंधान-कार्यमें पूजाके संस्कृत-हिन्दी पाठ प्रतिदिन करना एक बात लगे हुए हैं, वहाँस निकलनेवाली ग्रन्थ-मालाएँ है, और उनका समा सम्मान करना उनके सिद्धा. प्रमाण मानी जाती हैं, और किसी भी विद्वानको न्तोंका प्रचार करना और उनपर चलना दुसरी जब भारतीय विद्याओंके बारेमें कुछ गहरी खोज बात है। करनकी आवश्यकता पड़ती है, तब उसे भण्डारकर इतनी उपेक्षाके होते हुए भी कुछ सजनोंके प्रइन्स्टीट्यूट पनाकी शरण लेनी पड़ती है। जैन- यत्नसे आराका जैनसिद्धान्त-भवन, बम्बईका श्रीसमाजके विद्वानोंको भी प्राचीन जैन ग्रन्थोंके वास्ते ऐलक पन्नालाल सरस्वती-भवन, सरसावेका वीरयदि वहाँ जाना आना पड़े तो इसमें कोई आश्चर्य सेवामन्दिर और पाटनका नवोदघाटित ज्ञानमन्दिर की बात नहीं है।
जैनसमाजमें कायम हो सके हैं। इनकी तुलना यह संस्था १७ जलाई सन १९१७ ईस्वीको भण्डारकर इन्स्टीट्यटसे करना तो दीपकका सर रामकृष्ण भण्डारकरकी ८० वीं वर्षगांठके सूर्यसे मुकाबला करना है; परन्तु ये संस्थाएँ ऐसी अवमर पर भण्डारकर महोदय के उच्च काय और जरूर है, जिनका समुचित संचालन मंरक्षण संव. ध्ययको जारी रखने के लिए बम्बई तथा दक्षिणकं र्द्धन, और यथेष्ट आर्थिक महयोगसे बड़ा रूप बन विद्वानों और दातारोंने स्थापित की थी और मकना है। इमका उद्घाटन बम्बई-गवर्नर लार्ड वेलिंगटनने भण्डारकर इन्स्टीट्यटका नाम तथा उल्लेख किया था। यह संस्था अपने महान आदशोंके जैन-ममाजकं मामने एक आदर्श रखने के उद्देश्यसे अनुसार अबतक बराबर काम कर रही है। किया गया है।
* जैन-समाजमें अनुसंधानादि विषयक ऐसे वीरमवामन्दिर', सरमावा, अपने ढंगकी उपयोगी कामोंकी तरफ़ कुछ भी रुचि नहीं है। निराली संस्था है। इसकी स्थापना जैन-समाजके लक्ष्मी और सरस्वतीका विख्यात वैर जैन-समाजमें सुप्रसिद्ध विद्वान पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने मोटे रूपसे हर स्थान पर दिखाई देता है । फिर अभी चार पाँच वर्ष हुए की है । यह संस्था उनके धन-प्रेमी अशिक्षित जैन-समाज विद्या तथा अन- महान त्याग, मितव्ययतापर्ण गाढी कमाडे, माहित्य‘धानके केन्द्रोंकी आवश्यकता या महत्वको अन- प्रेम और आदर्श-प्रभावना-भावका फल है, और