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वर्ष २, किरण १.]
हरी साग-सब्जीका त्याग
दिये गये हैं। इस प्रकार ये पर्व तो मुनिके समान मुनि और भाचार्य माने जाने लगे हैं तबसे बिल्कुल धर्ममें ही लगे रहनेके वास्ते हैं न कि हरी स्थियोंमें भी भावों और परिणामोंकी शुद्धिके स्थान साग सब्जीका खाना छोड़ दयाधर्मका स्वागत पर धर्मके नामपर लोक दिखावा और स्वांग करनेके वास्ते । ये पर्व तो उस ही के वास्ते हैं जो तमाशा ही होने लगगया है । इस ही से जैनधर्मकी पहले सम्यग्दर्शन ग्रहणकर पांचों अणुव्रत ग्रहण अप्रभावना होकर इसकी अवनति शुरू होगई। करले और फिर उन अणुव्रतोंको बढ़ानेके वास्ते नतीजा जिसका यह हुमा कि जहां हिन्दुस्तानमें तीनों गुणत्रत ग्रहणकरले और उसके बाद सामयिक पहले की करोड़ जैनी वहाँ भव केवल दस
और देशावकाशिक नामके दो शिक्षाप्रत भी प्रहण ग्यारह लाख ही जैनी रह गये हैं-उनके भी तीन करले, अर्थात् कुछ कुछ अभ्यास मुनिधर्मका भी टुकड़े जिनमेंसे प्रायः ४ लाख दिगम्बर ४ लाल करने लगे; तब ही वह इन पर्वो में प्रोषधोपवास मूर्ति पूजक श्वेताम्बर और ३ लाख स्थानकवासी करके पर्वके ये दिन मुनिके समानधर्म-ध्यानमें ही समझ लीजिये। इस प्रकार हिन्दुस्तानकी ३५ करोड़ बिता सकता है । यह सब साधन करनेसे पहले ही आबादीमें मुट्ठीभर जैनी बाकी रह गये हैं, वह भी अर्थात् सम्यग्दर्शन-प्रहण करनेसे पहले ही जो नामके ही जैनी हैं, और बहुत तो ऐसे ही हैं जो लोग इन पर्वो में हरी सब्जीका त्याग कर धर्मात्मा- जैनधर्मसे बिल्कुल बनजान होकर अपनी धर्म
ओंमें अपना नाम लिखाना चाहते हैं वे तो एक कियापोंसे जैनधर्मको लजाते ही हैं।। मात्र जैनधर्मका मखौल ही कराते हैं। __सबसे बड़ा अफसोस तो इस बातका है कि उपसंहार
पंडितों, उपदेशकों, शासकी गहीपर बैठकर पीर सारांश इस सारे शास्त्रीय कथनका यह निक भगवानकी वाणी सुनानेवालों, स्यागियों, ब्रह्मचालता है कि श्री कुन्दकुन्द और श्रीसमन्तभद्र जैसे रियों, ऐखकों, कुलकों और मुनियों प्राचार्यों मेंसे पृवाचार्योंकी तो कोशिश यही रही है कि पहले किसीको भी इस बातका फिकर नहीं है कि धमका सब ही लोगोंको धर्मका सचा स्वरूप समझाकर सवा स्वरूप बताकर सबसे पहले लोगोंको सपा और चिरकालका जमा हुआ मिथ्यात्व छुड़ाकर सम्यक्ती बनाया जाये । सम्भव है वे खुद भी सबै सम्यक्ती बनाया जाये, इसके बाद ही फिर आहिस्ता सम्यती न हो,इस ही से इस तरफ कोशिश करनेका आहिस्ता उनको सम्यक् चारित्र पर लगाया जावे, उनको उत्साह न पैदा होता हो । कुछ भी हो, अब जैसे जैसे उनके भाव ऊपर बढ़ते जावें वसा वैसा तो एकमात्र यही देखनेमें पाता है कि मंदिरजीमें त्याग उनसे कराया जावे, जिससे सो मार्ग पर जब कोई शास्त्र समाप्त होता है वा कोई त्यागी चलकर वे अपना कल्याण कर सकें और मोक्षका किसीके घर भोजन करने जाता है वा कोई सीपरम सुख पासकें। परन्तु जबसे धर्ममें शिथिला- पुरुष किसी भी त्यागीके दर्शनोंको उनके पास चार फैला है, जबसे ठाठ बाटसे रहनेवाले, नालकी जाते हैं तो ये लोग कुछ नहीं देखते कि वह पालकीमें चलनेवाले वसधारी मट्टारक भी महा- जैनधर्मके स्वरूपको कुछ जानता भी है या नहीं,