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वर्ष २, किरण १.]
दिगम्बर-श्वेताम्बर-मान्यता-भेद
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थोड़ी देरके लिये यदि सामान भी लिया जाय कि विधिको साधारण असमानताको अलग रखकर हमें ऐसे मेद बहुत है, फिर भी मेरी नम्र विनति यह है कि हमें अपने निर्मल विवेक वारा आपसी तुला विरोध तथा साब साथ यह भी वो देखना चाहिये कि हममें विचारों- संकुचित मनोको विसर्जन कर जैनत्वक प्रयटरनेमें मान्यताओंकी एकता कितनी है? यदि सहशता-एकता अभिमभावसे अनवरत प्रयत्न करना चाहिये। अधिक है तो फिर उससे लाभ क्यों न उठाया जाय ? विरोधाग्निकी ज्याला दि० श्वे. में परस्पर ही इससे रागद्वेषका उपशम होगा, आत्माकी निर्मलता सीमित नहीं, बल्कि दिगम्बर-दिगम्बरोंमें और श्वेताम्बरोंबढ़ेगी, जो कि सारे कर्त्तव्योंका-क्रिया कांडोंका चरम- श्वेताम्बरों में भी साधारण मत भेदोके कारण वह प्रज्वलक्ष्य है। श्राशा है हमारा समाज शांत हृदयसे इसपर लित है। श्वेताम्बर-दिगम्बर सामयिकपत्रों में कई पत्रों. विचार कर, जिस हद तक हम मिलजलकर रह सकते का तो एकमात्र विषय ही यह विरोध बन रहा । हैं मान सकते हैं यहाँ तक अवश्य ही संगठित होकर कालमके कालम एक दूसरेके विरोधी लेखोंसे भरे रहते सद्भाव पूर्वक कार्य करनेका पूरा प्रयत्न करेगा। हैं, ऐसे विरोधवर्धक व्यक्तियों तथा पत्रोंसे समाजका
अब रहा हमारी एकताका दृष्टिकोण | मैं जहाँ तक स्या भला होनेको है ? जानता हूँ कथा एवं विधि विधानके भेदोंकी हम जैनी अनेकान्ती हैं, अनेकान्तके बलपर विभिन्न अलग कर दिया जाय तो तात्विकभेद २-४ ही नज़र दृष्टिकोणोंका समन्वय कर हम विरोधको पचा सकते..,यह भाएँगे । यथाः-स्त्रीमुक्ति, शद्रमुक्ति, दिगम्बरत्व विवेक हम भलसे गये हैं । वर्त्तनमें अहिंसा और विचारों
इनमें झगड़नेकी कोई बात नहीं है क्योंकि में स्याद्वाद, ये दो भगवान महावीरके प्रधान सिद्धान्त इस पंचम काल में भरत क्षेत्रसे मुक्ति जाना तो श्वेताम्बर है; पर हम लोग इन दोनोंसे ही बहुत दूर है! कीड़ेछऔर दिमम्बर दोनों ही सम्प्रदाय नहीं मानते। अतः मकौड़े आदि सूक्ष्म जीवों पर दया करना जानते हैं पर वर्तमान समाजके लिये तो ये विषय केवल चर्चास्पद गरीय भाइयों तथा दस्सों आदिको गले लगाना नहीं • ही हैं । दिगम्बरत्वके सम्बन्धमें भी तत्वकी बात तो यह जानते ? उनपर अत्याचार करते व उनके अधिकारोंको है कि दिगम्बरत्व बाह्य वेष है अतः इसके ध्येयको ही छीनते हमें दया नहीं पाती! श्रापसी फटका बोलस्थान देना या लक्ष्य में रखना चाहिये । वास्तवमें इसका बाला है। अहिंसाके उपासक शान्तिनिधि एवं विश्वसाध्य निर्ममत्व भाव है, जो कि उमय सम्प्रदायोंके लिये प्रेमी होने चाहिये, पर हमारी पत्तेमान अवस्था इसके उपास्य है । जो ध्येयको सन्मुख रखते हुए व्यवहार सर्वथा विपरीत है। इसी प्रकार अनेकान्त अथवा स्याद्मार्गका अनुसरण करते हैं, उनके लिये चाहे दिगम्बरत्व वादका जीवन में कोई प्रभाव प्रतीत नहीं होता. वह तो उसके अधिक सन्निकट हो पर एकान्त बाह्य वेषको ही केवल ग्रन्थोंका ही विषय रह गया है। अतः इसकी उच्च एवं महत्वका स्थान नहीं मिल सकता केवलिमुक्ति जीवन में पुनः प्रतिष्ठा करनेकी श्रावश्यकता है। श्रादि बातें तो हमारे साधना मार्ग में कोई मूल्यवान हमारा दि० श्वे. दोनों समाजोंसे विशेष अनुरोध मतमेद या बाधा उपस्थित नहीं करती। केवली कवला- है कि वे अपने प्रापसी मनोमालिन्यको धो बहार हार करें या न करें हमें इसमें कोई लाभ या नुकसान तीर्थों के झगड़ोंको मिय डालें और जैनत्वके सच्चे उपासक नहीं हो सकता । इसी प्रकार अन्य मतभेदोंकी कट्टरता- बनकर संसारके सामने अपना अद्भुत एवं अनुपम का परिहार भी विशाल अनेकान्त-दृष्टिसे सहज होसकता अादर्श रखें । है। वास्तवमें हमारा लक्ष्य एवं पथ एक ही है । गति
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