________________
५४६
अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीरनिर्वाण सं०२४६
c.L
७५ स्वर्गलोक
स्वेद, खेद, प्रतर संख्या ६२
चिन्ता, विषाद ७४ अन्तर दीपसंख्या ५६ .
८२ तीर्थकरोंकी वाणी मुखसे निकले
मस्तकसे । ७५ तीर्थकर माताके
८३ दश आश्चर्य कृष्ण अमर भिन्न ही
कंका गमनादि ७६ नेमिनाथ-दीक्षान्तर
८४ तीर्थंकरोंके भव-जन्म स्थानादि तारतम्य ___ कैवल्योत्पत्ति ५४ दिन बाद ५६ दिन बाद इसीप्रकार उदयतिथि, देव देहमान, इंद्राणी संख्या ७७ जन्माभिषेक समय .
आदि कई बातोंमें और भी तारतम्य है। ___ इन्द्रके श्राने का पालक विमान ऐरावत हाथी इस सूचीको पढ़कर पाठक स्वयं समझ सकेंगे कि षाहन
भेद कितनी साधारण कोटिके हैं। ऐसे नगण्य भेद दि० ७८ प्रलय-प्रमाण छहखंड प्रलय आर्यखंड प्रलय श्वे० में ही क्यों, एक ही सम्प्रदायके विभिन्न ग्रन्थों में भी ७६ मुनिके पारने एकसे अधिक बार एक ही बार असंख्य पाये जाते हैं । कथानुयोगके जितने भी ग्रंथ श्रादिके अवसर भी भोजन
देख लीजिये किसीमें कुछ तो किसीमें कुछ इस प्रकार पर भोजन लेना ले सके
अनेक असमान बातें मिलेंगी। कथा साहित्यकी बात ८० कालद्रव्य स्वतंत्र द्रव्य नहीं। स्वतंत्र द्रव्य है जाने दीजिये, श्वेताम्बर आगम ग्रंथों एवं प्रकरणोंमें ८१ अठारह दोष दानादि अन्तराय५, तुधा, तृषा, अनेक विसंवाद पाये जाते हैं, जिनके संग्रहरूप कविवर
हास्य, रति, अरति, जरा, रोग, समयसुंदरजीके 'विसंवादशतक' श्रादि मौलिक ग्रंथ भी भय,जुगुप्सा,शोक, जन्म, मरण, उपलब्ध है। जब एक ही संप्रदायमें अनेक विचार भेद काम, मिथ्यात्व, भय, मद, राग, विद्यमान हैं तो भिन्न सम्प्रदायोंमें होना तो बहुत कुछ अशान,निद्रा,अ- द्वेष,मोह, अरति, स्वाभाविक तथा अनिवार्य है । अतएव ऐसे नगण्य विरति,राग, द्वेष निद्रा, विस्मय, भेदोंके पीछे व्यर्थकी मारामारी कर विरोध बढ़ाना कहाँ
....... तक संगत एवं शोभाप्रद हो सकता है ? पाठक स्वयं दिगम्बराचार्य विनसेनने, भाविपुराणके ३७३ विचार करें। वर्षम, 'भवेयुरन्तर दीपाः षटपंचारावामा मिता' वाक्य- श्वेताम्बरीय 'लोकप्रकाश' ग्रन्थमें १८ दोषोंका के द्वारा अन्तर द्वीपोंकी संख्या ५६ दी है, इससे इस एक दूसरा प्रकार भी दिया है, जिसमें दानादि पांच संख्याका भी सर्वया एकान्त नहीं है। -सम्पादक अन्तराप, जुगुप्सा, मिथ्यात्व, अविरति द्वेष नामके
श्वेताम्बर 'भगवती' सूत्र मादि भागमों में काल दोष नहीं, इनके स्थान पर हिंसा, भलीक, चोरी, क्रोध, को स्वतन्त्र मन्म भी माना है, ऐसा पं० सुखजाननी मान, माषा, बोम, मद, मत्सर वोष दिये और कामके अपने चौथे कर्म ग्रन्थके परिसिटमें, पृ १०पर सूचित लिये क्रीडा, तथा रागके लिये प्रेम माब्दों का प्रयोग
-सम्पादक किया है। सम्पादक