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तत्वचची
श्रुतज़ानका आधार
[ले०-५० इन्द्रचन्द्रजी जैन शानी ] "मानेकान्त" के दूसरी वर्षकी सातवीं किरणमें मैंने स्वभाव और विभावकी है। यदि ज्ञानके स्वभाव और
श्रुतज्ञान के विषयमें कुछ प्रकाश डाला है, उसमें विभावपर ठीक विचार किया जावे तो यह समस्या इस बातको सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है कि हल हो सकती है। भावमन सभी संसारी प्राणियोंके होता है। इसीभावमन
आत्मामें ज्ञानवरणीय श्रादि पाठ कर्मों मेंसे विभाके आधारसे श्रुतज्ञान भी सभी संसारी प्राणियोंके संभव वता लानेवाला या विकार पैदा करनेवाला सिर्फ़ मोहहो सकता है । भावमनको जैनाचार्योंने ज्ञानात्मक नीय कर्म ही है । शेष सात कर्म अपने अपने प्रतिपक्षी स्वीकार किया है, तथा जीवकी ऐसी कोई भी अवस्था गुणोंको प्रगट नहीं होने देते। वे गुण जितने अंशमें नहीं है जब वह बिलकुल ज्ञानशून्य हो जाय । इस लेखमें प्रगट होते हैं उतने अंशमें वे कर्म उन गुणोंको विभाग इसी भावमनके ऊपर कुछ और विचार किया जायगा, रूप करनेमें कारण नहीं होते । यदि उन गुणोंमें विकार जिससे आगे श्रतज्ञान पर विचार करने में अवश्य श्राता है तो वह सिर्फ़ मोहनीयके कारण-स्वतः उनमें सहायता मिलेगी।
विकार नहीं होता। भावमनको ज्ञानस्वरूप स्वीकार करते हुए भी कुछ शानावरणीय कर्मके उदयसे विकृत या विभाव रूप विद्वान पौद्गलिक सिद्ध करनेका प्रयत्न करते हैं । इसमें ज्ञान नहीं होता, किन्तु, शानका अभाव ही होता है। मुख्य हेतु यही दिया जाता है कि, भावमन ज्ञानकी औदयिकभावोंमें जहाँ अज्ञान बताया है वहाँ अशानका विमाव परिणति स्वरूप है । अतः कर्मोंके संसर्ग होनेके अर्थ ज्ञानका अभाव ही है, मिथ्याशान नहीं । यथा-- कारण इसे कथंचित् पौद्गलिक स्वीकार किया जावे। “शानावरणकर्मण उदयात् भवति तवज्ञानमौदपिकम्" इस भावमनकी चर्चा में मुख्य विचारणीय समस्या
-सर्वार्थसिदि