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वर्ष २, किरण ६]
सिखसेन दिवाकर
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श्राठवीं शताब्दिके महान् मेधावी,मौलिक साहित्य- उदितोन्मतम्योम्नि सिखसेनदिवाकरः। कार और विशेष साहित्यिक युगके निर्माता प्राचार्य चित्रं गोभिःचिती आहे कविराजमप्रभा । हरिभद्रसूरि "पंच वस्तुक" प्रथमें लिखते हैं- _ अर्थात्-सिद्धसेनरूपी दिवाकर ( सूर्य ) के "सुमकेवलिण जमो भणि
अर्हन्मत (जैनधर्म) रूपी भाकाशमें उदय होने पर उन भापरियसिद्धसेणेण सम्मईए पहडिमजसेणं ।, की गो (किरण और वाणी दोनों अर्थ ) से पृथ्वी पर दूसम-णिसा-दिवागर कप्पत्तणो तदक्खेणं ॥" कविराज ( शेष कवि और बृहस्पति-दोनों अर्थ)
-पंचवस्तुक, गाथा १०४८ की और बुध (बुद्धिमान और बुध ग्रह-दोनों अर्थ) अर्थात्-दुःषम काल नामक पंचम श्रारा रूपी की कांति लज्जित हो गई। रात्रि के लिये सूर्य समान, प्रतिष्ठित यशवाले, श्रुतकेवली यहाँ पर "दिवाकर, किरण, बृहस्पति और बुध" समान प्राचार्य सिद्धसेनदिवाकरने 'सम्मति-तर्क' में के साथ तुलना करके उनकी अगाध विद्वत्ताके प्रति कहा है।
भावपूर्ण श्रद्धांजलि व्यक्त की गई है। हरिभद्र रचित इस गाथामें 'सूर्य' और 'श्रुतकेवली' प्रभाचन्द्रसूरि अपने प्रभावक चरित्रमें लिखते हैं विशेषण बतला रहे हैं कि १४४४ ग्रंथोंके रचयिता कि:श्राचार्य हरिभद्र सूरि सिद्धसेन दिवाकरको किस दृष्टि से स्फुरन्ति वादिखद्योताः साम्प्रतं दक्षिणा पथे। . देखते थे।
नूनमस्तंगतः वादी सिद्धसेनो दिवाकरः ॥ बारहवीं शताब्दिके प्रौढ़ जैन न्यायाचार्य वादिदेव- भाव यह है कि जिस प्रकार सूर्यके अस्त हो जाने सूरे अपने समुद्र समान विशाल और गंभीर ग्रंथराज पर खद्योत अर्थात् जुगनु बहुत चमका करते हैं । उसी 'स्याद्वाद-रत्नाफर' में इस प्रकार श्रद्धांजलि समर्पण तरहसे यहाँ पर भी रूपक-अलंकारमें कल्पनाकी गई है करते हैं:
कि 'दक्षिण पथमें अाजकल वादीरूपी खद्योत बहुत श्रीसिद्धसेन-हरिभद्रमुखाः प्रसिद्धाः। चमकने लगे हैं। इससे मालूम होता है कि सिद्धसेन ते सूरयो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः ॥
रूपी सूर्य अस्त हो गया है।' यहाँ पर भी सिद्धसेन येषां विमृश्य सततं विविधान् निबंधान् । प्राचार्यको सूर्यकी उपमा दी गई है। शाकं चिकीर्षति तनु प्रतिमोऽपि माइक् ॥ विक्रमको चौदहवीं शताब्दिके प्रथम चरणमें होने
अर्थात्-श्री सिद्धसेन और हरिभद्र जैसे प्रमुख वाले मुनि श्री प्रद्युम्नसूरि 'संक्षेपसमरादित्य' में लिखने प्राचार्य मुझ पर प्रसन्न हों, जिनके विविध ग्रंथोंका सतत है किमनन करके मेरे जैसा अल्प बुद्धि भी शास्त्र रचनेकी तमः स्तोमं सहन्तु श्रीसिद्धसेनदिवाकरः। ...... इच्छा करता है।
___ यस्योदये स्थितं मूलखकैरिव वादिभिः ॥ श्लेष और रूपक-अलंकारके साथ मुनि रत्नसूरि अर्थात्-श्रीसिद्धसेनदिवाकर अज्ञानरूपी अंधकार अपने बारह हज़ार श्लोक प्रमाण महान् काव्य 'अमम- के समूहको नष्ट करें। जिन सूर्य ममान सिद्धसेनके उदय चरित्र में लिखते हैं:
होने पर प्रकाशमें नहीं रहने वाले वादी रूपी उल्ल