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अनेकान्त
[आषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६५
अर्थात्-शानावरण कर्मके उदयसे पदार्थोंका शान टीका-पत्र हि ज्ञानोपयोगोपि स्वभावविभावनहीं होना 'अजान' नामका श्रौदयिक माव है। भेदात् द्विविधो भवति । इह हि स्वभावज्ञानं अमूर्तम्,
पदार्थोके विपरीत श्रद्धान करानेमें दर्शन मोहनीय भन्यावाधम्, भतीन्द्रियम्, भविनश्वरम्, तबकार्यकारण का उदय कारण पड़ता है-शानावरण कर्मका उदय स्पेण विविधं भवति । कार्य सावत् सकलविमलकेवलनहीं। ज्ञानावरणका उदय तो ज्ञानके अभावमें ही ज्ञानम् । तस्य कारणं परमपारिणामिकभावस्थितत्रिकारण पड़ता है, जैसा कि पंचाध्यायीके निम्न वाक्यसे कालनिरुपाधिरूपं सहजज्ञानं स्यात् । केवलं विभावप्रकट है--
स्पाणि ज्ञानानि त्रीणि कुमति कुश्रुत-विभंगीजि हेतुः शुद्धात्मनो ज्ञाने शमो मिथ्यात्वकर्मणः। भवन्ति ॥ प्रत्यनीकस्तु तत्रोच्चैरशमस्तत्र व्यत्ययात् ॥ २-६७ अर्थात्--जीव उपयोगमयी है । उपयोगज्ञान दर्शन । अर्थात्--शुद्ध अात्माके शानमें कारण मिथ्यात्व के भेदसे दो प्रकारका है। यह ज्ञानोपयोग स्वभावकी कर्मका उपशम है । इसका उल्टा मिथ्यात्व कर्म उदय अपेक्षासे भी दो प्रकारका है। एक कार्य स्वभावज्ञान, है । मिथ्यात्व कर्मके उदयसे शुद्धात्माका अनुभव नहीं दूसरा कारण स्वभावज्ञान । समस्त प्रकारसे निर्मल हो सकता । आगे इसे और भी स्पष्ट किया है- केवलज्ञान कार्य स्वभाव ज्ञान है। इसीके बलज्ञानका
मोहेऽस्तंगते पुंसः शुद्धस्यानुभवो भवेत् । कारणरूप परम परिणामिक भावमें स्थित विभाव रहित न भवेद्विग्नकरः कश्चिच्चारित्रावरणोदयः ॥ आत्माका सहज ज्ञान कारण स्वभाव ज्ञान है। कारण .
-पंचाध्यायी, ६८८ । स्वभावज्ञानके द्वारा ही कार्यस्वभावज्ञान प्राप्त होता है । अर्थात्-दर्शन मोहनीय कर्मका अनुदय होने पर विभावज्ञान सिर्फ तीन ही है-कुमति, कुश्रुत, और श्रात्माका शुद्ध अनुभव होता है। उसमें चारित्र मोह- विभंगावधि । नीयका उदय भी विघ्न नहीं कर सकता।
इसी भावको नियमसारमें इस प्रकार स्पष्ट किया शुद्ध श्रात्माके अनुभवकी सम्यग्दर्शनके साथ हैव्याप्ति है । सम्यग्दर्शनके होने में दर्शन मोहनीयका अनु- सरणाणं चदुभेयं मदिसुदमोही तहेव मणपज । दय ही मूल कारण है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो चेव ॥
आत्माको मलिन करनेमें मोहनीय कर्म प्रधान-कारण अर्थात्-संज्ञानके चार भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि है । शानावरण कर्मके उदयसे ज्ञानगुणमें विकार नहीं और मनःपर्यय ज्ञान । विभावज्ञान अर्थात् अज्ञानके तीन भाता; किन्तु ज्ञानका अभाव हो जाता है । जहाँ ज्ञान भेद हैं कुमति, कुश्रुत, कुअवधि । गुणमें विकार आता है, वहाँ मिथ्यात्वके संसर्गसे ही आचार्य कुंदकुंदके इस कथनसे स्पष्ट हो जाता है, पाता है। प्राचार्य कुन्दकुन्दने भी इसी भावको नियम- किशानको विभावरूप सिर्फ मोहनीयके कारण कहा सारमें इस प्रकार प्रगट किया है-- - . गया है । यद्यपि शान पर मोहनीयका कोई खास असर "जीवो उवमो गमभो उवमोगो णाणदसणो होई । नहीं होता है, फिर भी मिथ्यात्वके उदयसे ही मतिश्रुत, गाणुवमोगो दुविहो सहावणाणं विहावणाणत्ति" अवधि विभाव रूप कहलाने लगते हैं और इसीसे कुमति,