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दिगम्बर-श्वेताम्बर-मान्यता भेद
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-श्री भगरचन्दली नाहटा]
नसमाजमें साधारण एवं नगण्य मत भेदोंके वितंडावाद खड़ा कर देते हैं। इन सब बातोंका मैं स्वयं "कारण कई सम्प्रदायोंका जन्म हुआ, और वे बहुत भुक्त-भोगी हूँ। मैं जब कलकत्तेमें रहता या जाता हूँ तो सी बातोंमें मत-ऐक्य होने पर भी अपनेको एक दूसरेका मेरा साहित्यिक कार्योंके वश अन्वेषण प्रादिके लिये विरोधी मानने लगे । इसी कारण हमारा संगठन तथा असर दिगम्बर-मंदिरोंमें जाना हो जाता है । तो कई संघबल दिनोंदिन छिन्न भिन्न होकर समाज क्रमशः भाई शंकाशील होकर कितनीही व्यर्थकी बातें पूछ बैठते अवनति-पथमें अग्रसर हो गया।
हैं श्राप कौन हैं क्यों आये हैं ? अजी आप तो __अब ज़माना बदला है, संकुचित मनोवृत्ति वालोंकी जैनाभास है, आपकी हमारी तो मान्यतामें बहुत अंतर
आँखें खुली हैं। फिर भी कई व्यक्ति उसी प्राचीनवृत्तिका है! इत्यादि । इसी प्रकार एक बार मैं नागौरके पोपण एवं प्रचार कर रहे हैं, लोगोंके सामने क्षुद्र क्षुद्र दिगम्बर मंदिरोंमें दर्शनार्थ मया तो एक भाईने श्वे. बातोंको 'तिलका ताड़' बनाकर जनताको उकसा रहे हैं। साभरण मूर्ति के प्रसंग श्रादिको उठाकर बड़ा वादअतः उन भेदोका भ्रम जनताके दिलसे दूर हो जाय विवाद खड़ा कर दिया, और मुझे उद्देश्य कर यह प्रयत्न करना परमावश्यक है।
श्वे. समाजकी शास्त्रीय मान्यता पर व्यर्थका दोषारोपण श्वेऔर दि० समाज भी इन मत भेदोंके भूतका करना प्रारंभ कर दिया । ये बातें उदाहरण स्वरूप शिकार है । एक दूसरेके मन्दिरमें जाने व शास्त्र पढ़नेसे अपने अनुभवकी मैंने कह डाली हैं। हमें एक दूसरेसे मिथ्यात्व लग जानेकी संभावना कर रहे हैं । एक मिलने पर तो जैनत्वके नाते वात्सल्य प्रेम करना दूसरेके मंदिरमें वीतरागदेवकी मूर्तिको देख शान्ति चाहिये, शास्त्रीय विचारोंका विनिमय कर ज्ञानवृद्धि पाना तो दूर रहा उलटा देष भभक उठता है । पवित्र करनी चाहिये उसके बदले एक दूसरेसे एक दूसरेका.मानों तीर्थ स्थानोंके झगड़ोंमें लाखों रुपयोंका अपव्यय एवं कोई वास्ता ही नहीं, मान्यताओंमें आकाश पातालका पक्षपातका निरापोषण एवं आपसी मनोमालिन्यकी अंतर है ऐसा उद्भासित होने लगता है। कहाँ तक कहूँ अभिवृद्धि होरही है।
हम एक दूसरेसे मिलनेके बदले दूरातिदूर हो रहे हैं। एकके मंदिरमें अन्यके जाने मात्रसे कई शंकाएँ अब हमें विचारना यह है कि हमारेमें ऐसे कौन उठने लगती है, जानेवालेको अपनी अभ्यसित कौनसे मतभेद हैं जिनके कारण हमारी यह परिस्थिति संकुचितवृत्तिके कारण भक्ति उदय नहीं होती। कोई और यह दशा हो रही है। वास्तबमें वे भेद कहाँ तक कोई माई तो एक दूसरे पर आक्षेप तक कर बैठते हैं- ठीक है ? और किन भावनाओं विचारधारामोंसे हम पूजा-पद्धति आदि सामान्य भेदोंको आगे कर व्यर्थका उनका समाधान कर एक सूत्रमें फैध सकते है।