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वर्ष २,
किरण १०]
स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द
"मानेकार्थत्वादावून मुत्पद्यते बालोचनादेरथ तरस्य ।"
सकता है कि जिस ग्रंथप्रतिपरसे उद्धरण कार्य किया गया हो उसमें लेखककी असावधानीसे यह अंश इसी अशुद्ध रूपमें लिखा हो; परन्तु फिर भी इससे इतना तो स्पष्ट है कि संग्रहकार में इतनी भी योग्यता नहीं थी कि वह ऐसे वाक्य अधूरेपन और बेढंगेपनको समझ सके । होती तो वह उक्त वाक्यको इस रूपमें कदापि उद्धृत न करता ।
नं० १५४ से १७० तक पाई जाती हैं। १६८ और १६६ नम्बरवाली गाथाएँ वास्तवमें पंचास्तिकायके 'नवपदार्थाधिकार' की गाथाएँ हैं और उसमें नम्बर १०६, १०७ पर दर्ज हैं। उन्हें 'मोक्षमार्गप्रपंचसूचिका चूलिका' अधिकारकी बतलाना सरासर ग़लती है । परन्तु इन ग़लतियों तथा नासमकियोंको छोड़िये और इन दोनों गाथाओं की टीकापर ध्यान दीजिये । १६६ ( १०७ ) नम्बरवाली 'सम्म सहयं ० ' गाथा टीकामें तो "सुगमं” लिख दिया है; जबकि अमृतचन्द्राचार्यने उसकी बड़ी (ख) श्रीजिनसेन प्रणीत श्रादिपुराणके हवें पर्व- अच्छी टीका दे रक्खी है और उसे 'सुगम' पदके योग्य का एक श्लोक इस प्रकार हैशमादर्शनमोहस्य सम्यक्त्वादानमादितः । जन्तोरनादिमिथ्यात्वकलंककलिलात्मनः ॥११७॥
पो भदानार्थमानस्य
इसमें अनादि मिथ्यादृष्टिजीवके प्रथम सम्यक्त्वका ग्रहण दर्शनमोहके उपशमसे बतलाया है । 'सम्यक्त्वप्रकाश' में इस श्लोकको श्रादिपुराणके दूसरे श्लोकोंके साथ उद्धृत करते हुए, इसके "शमाद्दर्शनमोहस्य" चरणके स्थानपर 'सम्यक्दर्शनमोहस्य' पाठ दिया है, जिससे उक्त श्लोक बेढंगा तथा वे मानीसा होगया है और इस बातको सुचित करता है कि संग्रहकार उसके इस बेढंगेपन तथा बेमानीपनको ठीक समझ नहीं सका है।
(ग) ग्रंथ में " इति मोक्षपाहुडे ॥" के बाद "अथ पंचास्तिकायनामग्रम्ये कुन्दकुन्दाचार्यः (?) मोक्षमार्गप्रपंचसूचिका चूलिका वर्णिता सा लिख्यते ।" इस प्रस्तावना - वाक्य के साथ पंचास्तिकायकी १६ गाथाएँ संस्कृतच्छाया तथा टीकासहित उद्धृत की हैं और उनपर गाथा नम्बर १६२ से १७८ तक डाले हैं, जब कि वे १८८० तक होने चाहिये थे । १७१ और १७२ नम्बर दोबार ग़लतीसे पड़ गये हैं अथवा जिस ग्रंथप्ररस नकल की गई है उसमें ऐसे ही ग़लत नम्बर पड़े होंगे और संग्रहकार ऐसी मोटी ग़लती को भी 'नक्कल राचेअकल' की लोकोक्तिके अनुसार महसूस नहीं करसका ! श्रस्तु इन गाथाओं में से १६८, १६६ नम्बरकी दो गा थानोंको छोड़कर शेष गाथाएँ वे ही हैं जो बम्बई रायचन्द जैनशास्त्रमालामें दो संस्कृत टीकाओं और एक हिन्दी टीका साथ प्रकाशित 'पंचास्तिकाय' में क्रमशः
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नहीं समझा है । और १६८ (१०६) नम्बरवाली गाथाकी जो टीका दी है वह गाथासहित इस प्रकार हैसम्मतं गायजुवं । चारितं रागदोसपरिहीयं । मोक्सस्स हवदि मग्गो भव्वाणं तदीयं ॥
टीका- "पूर्वमुद्दिष्टं तत्स्वपरप्रत्ययपर्यायाश्रितं मित्रसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्य प्ररुपितम् । न चैतद्विप्रतिषिद्ध निश्चयम्यवहारयोः साध्यसाधनभावस्वात् सुवर्ण- सुवर्णपाषाणवत् । अतएवोभवनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति ॥”
यह टीका उक्त गाथाकी टीका नहीं है और न हो सकती है, इसे थोड़ी भी समझबूझ तथा संस्कृतका शान रखनेवाला व्यक्ति समझ सकता है। तब ये महत्व की
सम्बद्ध पंक्तियाँ यहाँ कहाँसे श्रार्ड १ इस रहस्यको जाननेके लिये पाठक जरूर उत्सुक होंगे । अतः उसे नीचे प्रकट किया जाता है-
श्री अमृतचन्द्राचार्यने 'चरियं चरदि सगं सो०' इस गाथा नं ० १५६ की टीकाके अनन्तर अगली गाथाकी प्रस्तावना को स्पष्ट करने के लिये "बसु" शब्दसे प्रारम्भ करके उक्त टीकांकित सब पंक्तियाँ दी है, तदनन्तर “निश्चयमोचमार्गसाधनभावेन पूर्वोद्दिष्टम्यवहारमोचमार्गोऽयम्" इस प्रस्तावनाबाक्यके साथ अगली गाथा
+ देखो, बम्बईकी वि०संवत् १३७२ की छपी हुई उक्त प्रति, पृष्ठ १६८, १६६
+ बम्बई की पूर्वोल्लेखित प्रतिमें प्रथम चरणका रूपं "सम्मत्तखाबर्त्त" दिया है और संस्कृत टीकाएँ भी उसीके अनुरूप पाई जाती हैं।