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वर्ष २, किरण ६]
अहिंसा परमोधर्मः
को साफ प्रगट करता है।'
अन्याय है, और है उसकी पाल्माका हनन !' बिकनीरवता!
'उचित है! परन्तु शासन-व्यवस्थाको सुख रखने के जो बात सुननी पदी, वह महारानकी कल्पनासे लिए, आपका नगर प्रवेश अनिवार्य है। और यह तभी बाहरकी बात थी ! एक धका-सा लगा, उनकी मान- हो सकता है जब एक मानवीय-रकपारा द्वारा वीयताको ! अरुचिकर-पदार्थकी तरह बात गलेसे देवीको प्रसन्न किया जाए!' नीचे उतर गई ! और फिर भीतर पहुंचकर उसने जो 'मोक् ! मैं नहीं चाहता-सचिव ! ऐसे राज्य को ! ज्वाला दहकाई उससे मुखाकृतिको-महाराज प्रकृति- जिसके लिए मुझे निरपराध, प्रजाके एक पुनके रक्तसे रूप न रख सके ! अधरोंकी भारतमा भाँखोंकी भोर हाथ रँगने पडें !"नगर-प्रवेशको मैं अनिवार्य नहीं बढ़ चली ! मोठों पर थिरकने वाली मुस्कराहट, प्रकम्पन मानता ! मैं जहाँ रहूंगा-वहीं मेरा राज्य ! दुर्ग-द्वार, रूप दिखलाने लगी और हृदयकी स्पन्द गति करने लगी नगर, सब-कुछ प्रजाके लिए है-प्रजाकी चीज़ है वह प्रलयान्त-समीरसे स्पर्द्धा !
चाहे उसे बनाये-बिगारे ! मेरा कोई सम्बन्ध नहीं ! कितना कडू मा-बूंट था- वह ! पी तो गए महा- मेरा राज्य बगैर हत्याके महान् पापको खाँधे हुए यहाँ राज उसे । लेकिन वह पचा नहीं ! बोले- रहकर भी चल सकता है ! __ 'क्या कहा ? मैं हत्या करूँ--एक मनुष्यको धर्मकी जयदेवने देखा-महाराज अपने निश्चय पर अटल दुहाई देकर अपने हागों, मार डालू-रल करूँ उसे? है तो चुप हो रहे ! क्या यह संकल्पी-पाप नहीं ? मानवीयता को ठुकराकर था भी यही उचित ! नारकीयता को गले लगाऊँ ?..'नहीं, यह मुझसे न हो सकेगा, पाप-पूर्ण उपाय करनेसे निरुपाय बैठ रहना, मैं समझता हूँ कहीं अच्छा है...!'
दूसरे दिन की बात है-- ____ हो सकता है किन्हीं अंशोंमें यह भी ठीक !'- नगरके सभी समृद्धिशाली, प्रतिष्ठित व्यक्ति महावाक्-पटु जयदेवने मुँहपर थोड़ी हँसी लाते हुए राजनै- राजसे मिलने पाए ! यह थे जनताके प्रतिनिधि-- तिक-गंभीरता मागे रखी--'लेकिन मेरा ख़याल है कि पंच-गण ! जिनके हाथमें होती है सामानिक-शक्तियोंराज-काजमें इतनी धार्मिक-सतर्कता नहीं बरती जा- की बागडोर । सकती ! सब-कुछ करना पड़ता है-इसमें छल-प्रपन्च कहने लगे--'महाराज ! विना भापके नगर सूना भी, हत्याएँ भी. नर-संहार भी! इसलिए कि राजाका है ! जीव-हीन शरीरकी भाँति उसमें न उखास शेष है जीवन सार्वजनिक जीवन होता है ! और धार्मिक- न चैतन्यता ! भापको चरण-रज-द्वारा शीघ्र नगरको नियंत्रण होता है-व्यक्तिगत !'
सौभाग्यवान् बनाना चाहिए ! बौर ऐसा हुए हमें 'मगर वह राजा होकर व्यक्तित्व को खो तो नहीं सन्तोष नहीं !' बैठता ?.."स्व-पर-लाभकारी उचित मांग भी वहन महाराजके सामने पह प्रजाकी पुकार थी ! पा सके। यह कैसा बन्धन ? यह तो उसके प्रति जिसकी अवहेलना भाज तक उन्होंने नहीं की! यह