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हरी साग-सब्ज़ीका त्याग
[ले० -बाबू सूरजभानुजी वकील]
मजकल जैनियोंमें हरी साग-सब्जीके त्यागका दयाधर्म तथा अहिंसावादको एक प्रकारका बचोंका
का बेहद रिवाज हो रहा है,प्रायः सब ही जैनी तमाशा ही समझने लगते हैं। चाहे वे जैनधर्म के स्वरूपको जानते हों वा न इसके सिवाय, जब वे देखते हैं कि जो लोग जानते हों, सम्यक्त्वी हों वा मिथ्यात्वी, किसी न चलते फिरते बड़े बड़े जीवों पर भी कुछ दया नहीं किसी साग-सब्जीके त्यागी जरूर होते हैं । विशेष करते, किसी कुत्ता-बिल्लीके घरमें घस जाने पर ऐसा कर अष्टमी और चतुर्दशीको तो सभी प्रकारकी लट्ठ मारते हैं कि हड्डी-पसली तक टूट जाय, बेटी हरी बनस्पतिके त्यागका बड़ा माहात्म्य समझा पैदा होने पर उसका मरना मनाते हैं, धनके जाता है। बहुत ही कम जैनी ऐसे निकलेंगे जो इन लालचमें किसी बूढ़े खूसटसे ब्याह कर उसका पर्व तिथियों में हरी साग-सब्जी खाते हों । हाँ, सर्वनाश कर देते हैं, किसी जवान स्त्रीका पति मर अपनी जिह्वा इन्द्रियकी तृप्ति के लिये ये लोग इन जाने पर उसके धनहीन होनेपर भी उसके रहनेका साग-सब्जियोंको सुखाकर रख लेते हैं और बेखटके मकान वा जेवर और घरका सामान तक बिकवा खाते हैं। सुखानेके वास्ते जब यह लोग ढेरों साग- कर उससे उपके मरे हुए पतिका नुत्ता कराते हैं और सब्जियोंको काट काट कर धूपमें डालते हैं और बड़ी खुशीके साथ खाते हैं, नाबालिग भाई भतीजेइसका कारण पूछने पर जब इनके अन्यमती की जायदाद हड़प करनेकी फिकरमें रहते हैं, घरकी पड़ौसियोंको यह जवाब मिलता है कि जीवदया विधवाओंको बेहद सताते हैं, अनेक रीतिसे लोगों पालनेके अर्थ ही इनको सुखाया जा रहा है, पर जुल्म सितम करते रहते हैं, ठगी, दगाबागी, जिससे इन साग-सब्जियोंके बनस्पतिकाय जीव मर झठ, फरेब,मंकारी, जालसाजी, कम तोलना, माल जाएँ और यह साग-सब्जियाँ निर्जीव होकर खानेके मारना,लेकर मुकर जाना,कर्ज लेकर उसको वापिस योग्य हो जाएँ, तो जैनधर्मकी इस अनोखी दयाको देनेके लिये खुल्लम खुल्ला सैकड़ों चालें चलना,और और जीव रक्षाकी अनोखी विधिको सुनकर वे भी अनेक तरहसे दुनियाँको सताना और अपना अन्यमती लोग भौंचकेसे रह जाते हैं और जैनियोंके मतलब निकालना जिनका नित्यका काम हो रहा