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जय वीर
[खेखक भी 'भगवत्' जैन]
(१)
'त्राहि-त्राहि'-ध्वनि विश्व-मण्डलमें व्यापक थी- नभ कांपता था दीन-हीनोंकी पुकारोंसे ! छलियोंका माया-जाल सत्यताके रूपमें थाव्यग्र सदाचार था घृणित कुविचारोंसे !! क्षीण हो रही थी आत्म-शक्ति क्षण-प्रति-क्षणपाशविकताके तीक्ष्ण घातक-प्रहारोंसे ! दुखी था, विकल था, विवश था अतीव यों किवंचित था प्राणी जन्म-सिद्ध अधिकारोंसे !!
राक्षसी-प्रवृतीने हृदयको बनाया बज्रलूटा बुद्धि-बल सारा अन्धानुकरणने ! नर-मेघ-यज्ञमें भी 'दुख'का न भान हुभास्वर्ग-सुख बतलाया लालसा-किरणने !! प्रेम-प्रतिभाकी रम्य, नेत्र-प्रिये वाटिकाएँकरडालीं उजड़ कठोर-आक्रमणने ! 'वीरता' को मोल लिया 'भीरुता' की दृढ़तानेमानवीयताको लिया निंद्य-आचरणने !!
हँसता-सा 'पाप' पूज्य-आसन विराजता थाभरता था-पुण्य-पड़ा-पड़ा सिसकारियाँ ! धर्म-सी पवित्रता 'अधर्म' से कलंकितथीमौज मार रही थीं कुरूप-बदकारियाँ !! नारकीयता थी द्रुत-गतिसे पनप रहीसूखी-सी पड़ी थीं भव्यतर दया-क्यारियाँ ! पशु-बल रहता अट्टहासमें निमग्न, परचलती थीं नित्य दीन-गलों पै कटारियाँ !!
अत्याचार अनाचार दुराचार नाचते थेविश्वकी महानताके ऊपर प्रहार था ! दुखसे दुखित आर्तनाद उठते थे नित्य'पाप' का असह्य धरणी पै एक भार था !! क्षीण थीं शुभ आशाएँ प्रसस्त था पतन-मार्गमृत 'प्रात्म-तोष' था सजीव 'हाहाकार' था ! ऐसे ही समयके कठोर बज्र-प्रांगणमेंहुआ—दयामय-प्रभु वीर-अवतार था !!
हिंसाकी लपट होम-कुण्डमें धधकती थीग्राहक बना था एक दूसरेकी जानका! धर्मकी 'दुहाई' में 'नृशंसता' विराजती थीघोटा जा रहा था गला 'आत्म-अभिमान' का !! ज्वाला जलतीमें मूक-पशु होम देते जो किपाते वह निर्दयी थे पद पुण्यवान का! सत्यको प्रकट करना भी था दुरूह कार्यदीख पड़ता था दृश्य विश्व-अवसानका !!
पतझड़ हुआ अन्त भागया बसन्त मानोंसूखी-सरिताओंमें सलिल लहराया हो । मृत्यु-सी 'अरुचि में 'सुरुचि-पूर्ण जीवन होयाकि 'रुग्णता' में 'स्वस्थ-जीवन' समाया हो !! मिला हो दरिद्रको कुवेरका समग्र-धनयाकि भक्त पूजकने पूज्य-पद पाया हो । दानवी निराशा-सी निशाके श्याम-अंचलमेंआशाका दिवाकर प्रभात बन पाया हो ।।