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वर्ष २, किस्स
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रायचन्द भार कुछ संस्मरण
' सूितर पाये त्यम तुं रहे, उपम त्यम करिने हरीने बरे- मोक्ष प्राप्त कर लिया है। मैं समझता हूँ कि रे
जैसे पाखाका यह सूत्र था वैसे ही रायचन्द दोनों ही मान्यताएँ अयोग्य हैं । इन बातोंको भाईका भी था। धार्मिक झगड़ोंसे वे हमेशा अबे मानने वाले या तो श्रीमद्को ही नहीं पहचानते, रहते थे-उनमें वे शायद ही कभी पड़ते थे । वे अथवा तीर्थकर या मुक्त पुरुषकी ये व्याख्या ही समस्त धर्मोकी खूबियाँ पूरी तरहसे देखते और दूसरी करते हैं। अपने प्रियतमके लिये भी हम उन्हें उन धर्मावलम्बियोंके सामने रखते थे। सस्यको हल्का अथवा सस्ता नहीं कर देते हैं। दक्षिण भाफ्रिकाके पत्र व्यवहारमें भी मैंने यही मोक्ष प्रमूल्य वस्तु है । मोक्ष मारमाकी अंतिम वस्तु उनसे प्राप्त की।
स्थिति है । मोक्ष बहुत मॅहगी वस्तु है। उसे प्राप्त __मैं स्वयं तो यह मानने वाला हूँ कि ममस्त करनेमें, जितना प्रयत्न समुद्र के किनारे बैठकर एक धर्म उस धर्मके भक्तोंकी दृष्टिसे सम्पूर्ण हैं, और मीक लेकर उसके ऊपर एक एक वृद चढ़ा चढ़ा दूसरोंकी दृष्टि से अपूर्ण हैं। स्वतंत्र रूपसे विचार कर समुद्रको खाली करने वालेको करना पड़ता है करनेसे सब धर्म पूर्णापूर्ण हैं। अमुक हदके बाद और धीरज रखना पड़ता है, उससे भी विरोष सब शान बंधन रूप मालूम पड़ते हैं। परन्तु यह प्रयत्न करनेकी आवश्यकता है । इस मोक्षका संपूर्ण तो गुणातीतकी अवस्था हुई। रायचन्द भाईकी वर्णन असम्भव है । तीर्थकरको मोक्षके पहलेकी दृष्टिसे विचार करते हैं तो किमीको अपना धर्म विभूतियाँ सहज ही प्राप्त होती हैं। इस देहमें मुक्त छोड़नेकी आवश्यकता नहीं । सब अपने अपने पुरुषको रोगादि कभी भी नहीं होते । निर्विकारी धर्ममें रह कर अपनी स्वतंत्रता-मोक्ष प्राप्त कर शरीरमें रोग नहीं होता । रागके बिना रोग नहीं सकते हैं। क्योंकि मोक्ष प्राप्त करनेका अर्थ सर्वांश होता । जहाँ विकारहै वहाँ राग रहता ही है और से राग-द्वेष रहित होना ही है।
जहाँ राग है वहाँ मोक्ष भी संभव नहीं । मुक्त परिशिष्ट *
पुरुषके योग्य वीतरागता या तीर्थकरकी विभूतियाँ
श्रीमद्को प्राप्त नहीं हुई थीं। परन्तु मामान्य मनुष्य इन प्रकरणोंमें एक विषयका विचार नहीं
हा की अपेक्षा श्रीमद्की वीतगगता और विभूतियाँ हुआ । उसे पाठकोंके समक्ष रख देना उचित सम
बहुत अधिक थीं,इसलिये हम उन्हें लौकिक भाषाझता हूँ । कुछ लोग कहते हैं कि श्रीमद् पचीसवें
में वीतराग और विभूतिमान कहते हैं। परन्तु मुक तीर्थकर हो गये हैं। कुछ ऐसा मानते हैं कि उन्होंने
पुरुषके लिये मानी हुई वीतरागता और तीर्थकरकी +जैसे सूत निकलता है वैसे ही तू कर । जैसे बने विभूतियोंको श्रीमद् न पहुँच सके थे, यह मेरा तैसे हरिको प्राप्त कर। -अनुवादक ह ढ़ मत है। यह कुछ मैं एक महान और पूज्य
*'श्रीमदराजचन्द्र' की गांधीजी द्वारा लिखा हुअा व्यक्तिके दोष बताने के लिये नहीं लिखता । परन्तु प्रस्तावनाका वह अंश जो उक्त संस्मरणोंसे अलग है उन्हें और मत्यको न्याय देनेके लिये लिखता हूँ । और उनके बाद लिया गया है।
यदि हम संसारी जीव है तो श्रीमद् भसंसारी