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— नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वत्तकः सम्यक् ।
परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ सम्पादन-स्थान-वीर-सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा, जिसहारनपुर
प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० ब० नं०४८, न्य देहली अाषाढ़ शुक्ल, वीरनिर्वाण सं० २४६५, विक्रम सं० १९६६
बर्ष २
किरण ६
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(कवि-नागराज-विरचित स्वतंत्र स्तोत्र) सास्मरीमि तोष्टवीमि ननमीमि भारती, तंतनीमि पापठीमि बंभणीमि तेमिताम् ।
देवराज-नागराज-मर्त्यराजपूजिता, श्रीसमन्तभद्रवादभासुरात्मगोचराम् ॥१॥ श्रीसमन्तभद्र के वादसे-कथनोपकथनसे-जिसका आत्मविषय देदीप्यमान है और जो देवेन्द्र, नागेन्द्र तथा नरेन्द्रसे पजित है, उस सरसा भारतीका-समन्तभद्रस्वामीफी सरस्वतीका-मैं बड़े आदर के साथ बार बार स्मरण करता हूँ, स्तवन करता हूँ, वन्दन करता हूँ, विस्तार करता हूँ, पाठ करता हूँ और व्याख्यान करता हूँ।
मातृ-मान-मेय-सिद्धि-वस्तुगोचरां स्तवे, सप्तभंग-सप्तनीति-गम्यतत्त्वगोचराम् ।
मोक्षमार्ग-तद्विपक्ष-भूरिधर्मगोचरामोप्ततत्त्वगोचरा समन्तभद्रभारतीम् ॥२॥ __प्रमाता (ज्ञाता)की सिद्धि,प्रमाण (सम्यग्ज्ञान) की सिद्धि और प्रमेय (ज्ञेय) की मिद्धि ये वस्तुएँ हैं विषय जिसकी जो सप्तभंग और सप्तनयसे जानने योग्य तत्त्वोंको अपना विषय किये हुए है-जिसमें सप्तभंगों तथा सप्तनयोंके द्वारा जीवादि तत्त्वोंका परिशान कराया गया है-जो मोक्षमार्ग और उसके विपरीत संसारमार्ग-सम्बंधी प्रचुर धर्मोके विवेचनको लिये हुए है और प्राप्ततत्त्वविवेचन-प्राप्त मीमां-भी जिसका विषय है, उस समन्तभद्रभारतीका मैं स्तोत्र करता हूँ।
सूरिसूक्तिवन्दिता मुपे यतत्त्वभाषिणी, चारुकीर्तिभासुरामुपायतत्त्वसाधर्नाम् ।।
पूर्वपक्षखण्डनप्रचण्डवाग्विलासिनी, संस्तुवे जगद्धिता समन्तभद्रभारतीम् ॥ ३॥ जो प्राचार्योकी सूक्तियोंढारा वन्दित है-बड़े बड़े प्राचार्योंने अपनी प्रभावशालिनी वचनावली-द्वारा जिसकी