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सिद्धसेन दिवाकर
[ले०-५० रतनलाल संघवी, न्यायतीर्थ-विशारद ] प्राकथन
संप्रदायमें ही हुए हैं; किन्तु अधिकांश विद्वान् इनके
संप्रदायाचा प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समंतभद्र, साहित्यके गंभीर विश्लेषण के श्राधारसे इसी निष्कर्ष
ये दोनों ही जैनधर्म और जैन-साहित्यके महान् पर पहुँचे हैं कि ये श्वेताम्बरीय प्राचार्य ही हैं। लेकिन प्रभावक महात्मा और उच्च कोटिके गंभीर विद्वान् यह सत्य है कि सिद्ध सेन दिवाकर दोनों ही संप्रदायोंमें श्राचार्य हो गये हैं। इनके साहित्यका और रचना-शैली. अत्यन्त पूज्य दृष्टिसे देखे जाते हैं। हरिवंशपुराणके का जैन-साहित्य पर एवं पश्चात्वर्ती साहित्यकार श्राचायाँ कर्ता श्री जिनसेन और श्रादिपुराण के रचयिता प्राचार्य पर महान् और अमिट प्रभाव पड़ा है । वैदिक साहित्यमें जिनसेन एवं पद्मप्रभ, शिवकोटि और कल्याणकीर्ति कुमारिलभट्ट, शंकराचार्य और उदयनाचार्य एवं वाच- श्रादि दिगम्बर श्राचार्य इन्हें गौरवपूर्ण रीतिसे स्मरण स्पति मिश्रका जो स्थान है प्रायः वही स्थान और वैसा करते हैं । भट्ट अकलंकदेव तो इनके वचनोंको अपने ही सम्मान इन दोनों प्राचार्योका जैनसाहित्यकी दृषिसे श्रमर ग्रंथों में प्रमाण रूपसे उद्धृत करते हुए दिखाई समझना चाहिये । जैनन्याय-साहित्यके दोनों ही श्रादि देते हैं। स्रोत हैं। इनके प्रादुर्भावके पूर्वका जैनन्यायका एक दोनों ही श्राचार्योंके जीवन, साहित्य और कार्यभी ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता है। इसलिये भगवान् महा- शैलीमें अद्भुन समानता प्रतीत होती है । दोनों ही स्तुतिचीरस्वामीके सूक्ष्म और गहन सिद्धान्तोंके ये प्रचारक, कार और श्राद्य न्यायाचार्य माने जाते हैं । इस लेखका प्रतिष्ठापक और संरक्षक माने जाते हैं तथा कहे जाते हैं। विषय 'सिद्धसेन दिवाकर' है, अतः पाठकोंसे स्वामी
स्वामी समन्तभद्र दिगम्बर सप्रदायमें हुए हैं और समन्तभद्रके विषयमें श्रद्धय पण्डित जुगलकिशोरजी सिद्धसेन दिवाकर श्वेताम्बर संप्रदायमें । यद्यपि कुछ मुख्तार सम्पादक 'अनेकान्त' द्वारा लिखित 'स्वामी विद्वानोंकी धारणा है कि सिद्धसेन दिवाकर भी दिगम्बर समन्तभद्र' नामक पुस्तकको अथवा माणिकचन्द्र ग्रन्थ