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वर्ष २, किरण ८]
मेरे जैन-धर्म-प्रेमकी कथा
हर
उठाया
यहाँके व्याख्यानोंका लाभ मैं : या करता बादको सागरमें वकालत भी शुरू करदी। जबलपुरके था । ब्रह्मचारी शीतलप्रशादजीके दर्शनका पुण्य लाम 'परवार बन्धु' ने और खासकर भाई जमनाप्रसादजी भी मुझे यहीं हुअा था। यहाँके दुर्बल शरीर किन्तु बैरिस्टरने बाध्य किया जिससे कुछ उस पत्र में भी लिया. अपार शक्ति तथा कार्यशीलताके श्रागार भा० लक्ष्मी- देता था। परवार बन्धु प्राता रहता था । जैनधर्मका चन्दजी जैन प्रोफेसर (अब डा० आदि ) से भी परि- पढ़ना स्वाभाविक-सा होता जाता था और उसे पढ़ने में चय हुआ | श्रापकी कार्यशीलतासे मैं सदा प्रभावित कभी धर्माधता जागृत नहीं होती थी। कुछ जैनधर्मले. हुश्रा करता था। जमनाप्रसादजीकी हँसमुख खटपट- पढ़नेकी और भी अधिक रुचि होने लगी। प्रियतासे भी बहुत अलग न रह पाता था और प्रो० इस ही दानमें, न मालम कैसे यहाँकी भवात हीरालालजीकी अध्ययनशीलता तथा विचार गांभीर्यसे जैनसमाजने स्वमाम अन्य पूज्य पंडित दरबारीलाल भी जैसे तैसे लाभ उठा ही लिया करता था | श्राप से मेरा साहिस्विक संबन्ध जोड़ दिया। उस समय दरवहाँ रिसर्च-स्कॉलर भी रहे हैं। मेरी तबियत खराब बारीलालजीनामसे सत्यसमाजी नहीं थे, उनके पत्रों होनेसे मुझे एक वर्ष पहले ही लॉ पास कर विश्राम एकजीव स्कृति, विचारोंमें एक अजीब नवीन लेना पड़ा, एम० ए० को तिलांजलि देनी पड़ी। जब प्रौदता तथा प्रवाह था, पत्र अनायास ही माना गुरु डाक्टरोंने फिर राय दी तब फाईनलके लिये. फिर हुचा और अब तक पाता है। आपके विचारोंने मुके. उसी वातावरणमें गया और पास करके फिर उस रम्य बहुत प्रभाषित किया । जब जब दरबारीलालजीला वातावरणके श्रास्वादनके लिये तथा वकालत शुरू सागर आगमन हुना, तब तब उन्होंने मुझे अवश्य करा करनेके पूर्व कुछ अनुभवकी अनुभूति प्राप्त करनेके पात्र बनाया और जैनधर्मके विराट सिद्धान्तोंके अवगत लिये अलाहाबाद पहुँच गया । उपर्युक्त महानुभावोंके हनका मूर्तिमान अवसर दिया-यद्यपि कंझटोंसे
और वैरिस्टर चम्पतरायजीके दर्शन मुझे पहले ५०-६. संस्थानों के विवर्नसे निकलकर मैं बहुत अधिक पहल यहाँ ही हुए । एकबार वहाँ कुछ जैनधर्म पढ़कर लाभ आपकी प्रतिमासे न ले सका पर मौका हाथ वैरिस्टर चम्पतरायजीको एक चिडीमें न जाने जैनदर्शन- जाने भी न देता था। मुझ जैसे जैनधर्मके A.B.C. के सम्बन्धमें कौन कौनसे प्रश्न जो जटिलसे मालूम हुए के विद्यार्थीको पचासों बार समाप्रधानकी जिम्मेवारी लिख दिये, जिनके साथमें विद्यार्थी जीवनकी कुछ प्राग्रह तथा प्रेमके खिचावके द्वारा थमादी गई।बई अल्हडता भी शामिल थी। वैरिस्टर सा० प्रसन्न हुए बार तो दो घंटे या एक घंटेके वारंट के बाद ही मुके
और उन्होंने कुछ जैनधर्म-सम्बन्धी पुस्तकोंका गहा समामें उपस्थित होकर कुछ कहनेको बाध्य होना था भेज दिया, उन्हें पढ़ना प्रारम्भ कर देना पड़ा और अब या समा संचालन ही करना पड़ा। तककी जैनधर्मके सम्बन्धकी भ्रामक तथा अधरी भाव- यहाँ उत्साही बालचन्दजी कोचल, बीरेन्द्रकुमार नाोंने कुछ रूप लेना शुरू करदिया इसके बाद जहाँ जी. गंगाधरप्रसादजी खजात्री, मैयालालजी सिलीवाले जैसा अवसर मिलता और पुस्तकें प्राप्त हो जाती पद और मेरे विद्यार्थी जीवनके मित्र शिवप्रशादजी भलेका, लेता और शान पिपासु बना रहता । स्याबाद के सिद्धान्त- मथुराप्रसादजी समैया प्रादिके शन्द अनुशासनरूप से ने मेरा अध्ययन पहिलेसे ही सार्वभौम-सा बना दिया था अपनी प्रयोज्यताकी अनुममि पर सिर हिलाते बिलाके और मैं थोडी थोडी हर धर्ममें अपनी टाँग प्रदाने लगा भी. शिरोधार्य करने ही पड़ते थे। स्थानीय सतहमा था। जैन होस्टल मेगज़ीनमें भी कभी कुछ लिख दिया तरंगिणी जैन पाठशालाके मन्त्री श्री पूर्णचन्द्रजीय. करता था, पता नहीं क्या क्या वहाँसे निकला। बाहरसे आई पुस्तकें भी कमी कमी प्राप्त हो जाती थी।
कुछ अनुभव अलाहाबाद तथा नागपुरमें प्राप्त कर इसी सरासे धीरे धीरे यह प्रवृत्ति बढ़ती थी। सही