________________
वर्ष
... ....... .. बीरप्रभुके.पर्समें अवि भेदको स्थान नहीं है
का तथा स्वरूप समझाया और पापसे हटाकर धर्ममें भला मानता रहा तबतक वह महापापी और पतित रहा, लगाया; तब ही से उन्नति करते करते मैंने अब यह महा फिर जब मुनिमहाराज के उपदेशसे उसको होश भागया उत्कृष्ट तीर्थकर पद पाया है। इस ही प्रकार अन्य भी और हिंसा करनेको महापाप समझने लग गया तब ही सब ही पापियों को पापसे हटाकर धर्ममें लगाना धर्मात्मा- से वह उस महानिंदनीय पर्याय में ही पुण्यवान् धर्मात्मा ओंका मुख्य कर्तव्य है । धर्मके सच्चे श्रद्धानीकी यही तो बन गया। एक पहचान है कि वह पतितोंको उभारे, गिरे हुओंको इस हो कारण श्रीसमन्तभद्रस्वामीने जाति-भेदकी ऊपर उठावे, भले भटकोंको रास्ता बतावे और पापियों- निस्सारताको दिखाते हुए रत्नकरंड भावकाचार श्लोक को पापसे हटाकर धर्मात्मा बनावे ।
में बताया है कि चांडाल और चांडालनीके रजवीर्य ___ धर्म, अधर्म, पाप और पुण्य ये सब अात्माके ही से पैदा हुआ मनुष्य भी यदि सम्यक् दर्शन ग्रहण करले भाव होते हैं । हाड मांसकी बनी देहमें धर्म नहीं रहता तो वह भी देवोंके तुल्य माने जाने योग्य हो जाता है। है। देह तो माता पिताके रज वीर्यसे बनी हुई महा इस ही प्रकार अनेक जैनग्रन्थों में यह भी बताया है कि अपवित्र निर्जीव वस्तुत्रोंका पिंड है। इस कारण अमुक ऊँचीसे ऊँची जाति और कुलका मनुष्य भी यदि वह माता पिताके रजवीर्यसे बनी देह पवित्र और अमुकके मिथ्यात्वी है और पाप कर्म करता है तो नरकगति ही रजवीर्यसे बनी देह अपवित्र, यह भेद तो किसी प्रकार पाता है तब धर्मको जाति और कुलसे क्या वास्ता ? भी नहीं हो सकता है, रजवीर्य तो सब ही का अपवित्र है जो धर्म करेगा वह धर्मात्मा होजायगा और जो अधर्म और उसकी बनी देह भी सबकी हाड मांसकी ही होती करेगा वह पापी बन जायगा । श्रीवीरप्रभुके समयमें है, और हाड मांस सब ही का अपवित्र होता है-किसी बहुत करके ऐसे ही मनुष्य तो थे जो पशु पक्षियोंको का भी हाड मांस पवित्र नहीं होसकता है- तब अमुक मारकर होम करना वा देवी देवतात्रों पर चढ़ाना ही माता पिताके रजवीर्यसे जो देह बनी है यह तो पवित्र धर्म समझते थे। जब महीने महीने पितरोंका श्राद
और अमुक माता पिताके रज बीयंस पनी देह अपवित्र कर ब्राह्मणांको माम खिलाना ही बहुत जरूरी सम्मा है यह बात किसी प्रकार भी नहीं बन सकती है। हाँ ! जाता था, तब उनसे अधिक पतित और कौन होसकता देहके अन्दर जो जीवात्मा है वह न तो किसी माता था? यदि माता पिताके रज वीर्यसे ही धर्म ग्रहण करनेपिताके रज वीर्यसे ही बनती है और न हाड मामकी की योग्यता प्राम होती है, तब तो यह महा अधर्म उनकी बनी हुई देहसे ही उत्पन्न होती है, वह तो स्वतन्त्र रूपसे नसनममें सैकड़ों पीदीसे ही प्रवेश करता चला प्रारहा अपने ही कर्मों द्वारा देह में श्राती है और अपने अपने था! और इसलिये वे जैनधर्म ग्रहण करने के योग्य किसी ही भले बुरे कर्मोको अपने साथ लाती है, अपने ही शुभ प्रकार भी नही होसकने थे । परन्तु वीरप्रभुके मत अशुभ भावों और परिणामांसे ऊँच नीच कहलाती है। यह बात नहीं थी। उनका जैनधर्म तो किसी जाति जैसे जैसे भाव इस जीवात्माके होते रहते है वैसी ही विशेषके वास्ते नहीं है। जब चांडाल तक भी इसको भली या बुरी वह बनती रहती है; जैसा कि वीरप्रभुका ग्रहण करनेसे देवताके समान सम्मानके योग्य होजाता जीव महाहिमा सिंहकी पर्याय में जबतक हिमा करनेको है तब पशु पक्षियों को मारकर होम करनेवाले और बाद