________________
.४६८
अनेकान्त
[ज्येष्ट, वीर-निर्वाण सं०२४६५
में नित्य ही मांस खानेवाले क्योंकर इस पवित्र जैनधर्मको वणिजोऽर्थार्जना म्याग्यात् यना न्यग्वत्तिसंश्रयात् ॥४६॥ धारण करनेके अयोग्य होसकते है ? अतः वीरप्रभुने फिर ३६वें पर्वमें सब ही जातिके लोगोंको जैनी इन सब ही हिंसकों और मांसाहारियोंको बेखटके जैन बनाने की दीक्षान्चय क्रिया बताकर, उनके जैनी बनजाने बनाया हनहीं से जो गृहस्थी रहकर ही धर्म पाल सके के बाद श्लोक १०७में उनको इस प्रकार समझाया है वे श्रावक और श्राविका बने और जो गृह त्यागकर कि-'सत्य, शौच, क्षमा, दम आदि उत्तम आचरणोंसकल संयमादि धारण करसके वे मुनि और आर्यिका को धारण करनेवाले सद्गृहस्थोंको चाहिये कि वे अपने हुए. यहांतक कि उन्हींमेंसे आत्म-शुद्धि कर अनेक को देव, ब्राह्मण मानें ।' और श्लोक १०८ से ११२ तक उस ही भवसे मोक्षधाम पधारे।
यह बताया है कि-'अगर कोई अपनेको झूठमूठ द्विज वीर भगवान के बाद श्री जैन प्राचार्योने भी जाति माननेवाला अपनी जातिके घमएडमें प्राकर उससे भेदका खंडन कर मनुष्य मात्र की एक जाति बताते ऐतराज़ करने लगे कि क्या तू आज ही देव बन गया हुए सब ही को जैनधर्म ग्रहण कर श्रात्म-कल्याण करने- है ? क्या तू अमुकका बेटा नहीं है ? क्या तेरी माँ का अधिकारी ठहराया है । अब मैं इसी विषय के कुछ अमुककी बेटी नहीं है ? तब फिर तू श्राज़ किस कारण नमूने पेश करता हूं, जिनके पढ़नेसे जैनधर्मका सच्चा से ऊँची नाक फरके मेरे जैसे द्विजोंका श्रादर सत्कार स्वरूप प्रगट होकर मिथ्या अंधकार दूर होगा, जातिभेद किये बिना ही जारहा है ? तेरी जाति वही है, जो पहले का झूठा भूत सिरसे उतर कर सम्यक् श्रद्धानमें दृढ़ता थी-तेरा कुल वही है जो पहले था और तू भी वही है, श्राएगी और मनुष्यमात्रको जैनधर्म ग्रहण करानेका जो पहले था । तो भी तू अपनेको देवता समान मानता उल्लास पैदा होकर सच्चा धर्म-भाव जागृत हो सकेगाः- है। देवता, अतिथि, पितृ और अग्नि सम्बन्धी कार्यों में
(१) भगवजिनसेनाचार्यकृत श्रादि पुराण पर्व ३८ अप्राकृतिक होने पर भी तू गुरू, द्विज, देवोंको प्रणाम् में मनुष्यों के जाति भेदकी बाबत लिखा है-'मनुष्य- नहीं करता है। जिनेन्द्रदेवकी दीक्षा धारण करने से जातिनाम कर्मके उदयसे ही सब मनुष्य, मनुष्य-पर्याय- अर्थात् जैनी बननेसे तुझको ऐसा कौनसा अतिशय प्राप्त को पाते हैं, इस कारण सब मनुष्योंकी, एक ही मनुष्य होगया है, ? तू तो अब भी मनुष्य ही है और धरतीको जाति है । अलग-अलग प्रकारका रोज़गार-धंधा करने- पैरोंसे छूकर ही चलता है।' से ही उनके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, ये चार इस प्रकार क्रोध करता हुआ कोई द्विज उलाहना भेद होजाते हैं । तती होनेसे ब्राह्मण कहलाता है, शस्त्र दे तो,उसको किस प्रकार युक्तिसहित उत्तर देना चाहिये धारण करने से क्षत्रिय, न्यायसे धन कमाने वाला वैश्य उसका सारांश श्लोक. ११४, १५, ११६, १३०,१३१,
और घटिया कामांसे श्राजीविका करनेवाला शूद्र ।' १३२, १४०, १४१, १४२ के अनुसार इस प्रकार हैयथा
_ 'जिन्होंने दिव्यमूर्ति जिनेन्द्रदेव के निर्मल शनरूपी "मनुष्यजातिरेकैच नातिनामोदयोदभवा ।
गर्भसे जन्म लिया है, वे ही द्विज है। व्रत, मंत्र श्रादि वृत्तिभेदा हि सदभेदाचातुर्विध्यमिहारनुते ॥४॥ संस्कारोंसे जिन्होंने गौरव प्राप्त कर लिया है,वे ही उत्तम ग्राहाणा व्रतसंरकारात् त्रियाः शवधारणात् । द्विज हैं। वे किसी प्रकार भी जाति व वर्णसे गिरे हुए