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वर्ष.२, किरण]
वीरभुके धर्ममें जातिभेदको स्थान नहीं है.............. ... --
मन
विनों पुत्रके किसीकी गति नहीं होसकती, यह भी और परिणामोकी शुद्धिका तो उस समय बहुत कुछ एक महा अहुत बाटा सिद्धान्त उस समय माना जा- अभाव होगया था। रहा था, इस हो कारण अपने पतिसे पुत्रकी उत्पत्ति न वीरप्रभुने ४२ बरसकी अवस्थामें केवलशन प्राप्त हो सकने पर स्त्री किसी कुटम्बीसे नियोग करके पुत्र कर लोगोंका मिथ्यात्व अंधकार दूर करना शुरू किया उत्पन्न करले, यह भी एक ज़रूरी धर्म प्रचलि हो रहा और स्पष्ट शब्दोंमें समझाया कि 'मुख वा दुख जो भी था- क्षत्रिय रणमें लड़ता हुश्रा मर जाय तो उसको कुछ मिलता है यह सब जीके अपने ही खोटे परे महायज्ञ करनेका फल मिलेगा, उसकी क्रियाकर्मी परिणामोंका फल होता है, जैसा करोगे पैसा भरोगे । गेहूँ भी कोई जरूरत न होगी, अर्थात् वह बिना क्रियाकर्म बोलोगे तो गेहूँ उगेंगे और जो बोनोगे तो जौ, बबलका किये ही स्वर्ग चला जायगा । इत्यादिक अद्भुत बीज बोनेसे काटे ही लगेंगे, किसी परमेश्वर वा देवी सिद्धान्त धर्मके नाम पर बन रहे थे और सर्व साधारण देवताकी खुशामद करने वा भेंट चढ़ानेसे बबूल के पेड़ में अटल रूपसे माने जारहे थे।
को श्राम अमरूद वा अनार अंगर नहीं लगने लगेंगे; इसके अलावा उस समय तांत्रिकोंका भी बड़ा भारी तब स्यों इस भ्रमजाल में फँसकर वृथा डले दो रहे हो? जोरशोर था, जो अनेक प्रकारकी महा भयङ्कर और जिस प्रकार देहकी बीमारीका इलाम शरीरके अन्दरसे डरावनी देवियोंकी कल्पना और स्थापना करके उनके दूषित द्रव्य (फ़ासिद माहा ) निकाल देने के सिवाय द्वारा लोगोंकी इच्छाओंके पूरा कर देनेका विश्वास और कुछ नहीं हो सकता है, उसी प्रकार प्रारमामें भी दिलाते थे—मारण, ताड़न, उच्चाटन, वशीकरण, रागद्वेष रूपी जो मैल लगा हुआ है उसके दूर किये अर्थात् किसी को जानसे मार डालना, अंग-भंग करदेना, बिना सुख शान्ति नहीं मिल सकती है।' कोई भयानक रोग लगा देना, धन-दौलत वर्बाद कर- अगर हम अपना भला चाहते हो तो सब भटकावा देना, अन्य भी अनेक प्रकारकी आपत्तिमें फंसा देना, छोड़ एक मात्र अपने ही परिणामोकी दुरुस्तीमें लग
आपसमें मनमुटावकर कर लड़ाई-झगड़ा करा देना, जाओ, अपनी नीयतको साफ़ करो, अपने भावोंको शुद्ध किसी दूसरेकी स्त्री श्रादिको वशमें करा देना धन बनाओ, स्वार्थ में अन्धे होकर दूसरोंको मत सतायो, सम्पत्ति निरोगता, पुत्र आदिकी उत्पत्ति, वा किसी स्त्री दूसरों के अधिकारों पर झपट्टा मत लगाओ, संतोषी बनो, प्रादिकी प्राप्ति करा देना श्रादि सब कुछ तांत्रिकोंके न्यायकी दृष्टिसे देखो तुम्हारे समान संसारके सब ही ही हाथमें माना जा रहा था। इस कारण उस समयके जीवोंको जीवित रहने, संसारमें विचारनेका अधिकार है, अधिकांश लोग अपने शुभाशुभ कर्मोकी तरफसे अगर तुम्हारी नीयत इसके विपरीत होती है तो वही बिल्कुलही बेपरवाह होकर और पुरुषार्थसे भी मुँह मोड़ खोटी नीयत है, वही खोटा भाव है जिसका खोय इन तांत्रिकोंके मंत्रों यंत्रोंके ही भरोसे अपने सब कार्यों परिणाम भी अवश्य ही तुमको भोगना पड़ेगा।' की सिद्धि करानेके चकरमें पो हुए थे। प्रात्मोप्रति किसी भी जीवको मारना, सताना, दुख देना, * मनुस्मृति २०६०
उसके अधिकारोंको छीनना, या किसी प्रकारकी रोक मिनुस्मृति ५-15
वैदा करना महापाप है,जो किसीको सताएगा वह उसके