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श्रनेकान्त
[चैत्र, वीर- निर्वाण सं० २४६५
जीवके शत्रु हैं, इस कारण उनका काम तो एकमात्र बिगाड़नेका ही है—सँवारने का नहीं । भेद सिर्फ इतना ही है कि जब कोई कर्म हमको अधिक काबू में करके अधिक दुख पहुँचाता है तो उसको हम पाप कर्म कहते हैं और जब कोई कर्म कमजोर होकर हमपर कम काबू पाताहै जिससे हम अपने असली ज्ञान गुण और बलवीर्यसे कुछ पुरुषार्थ करने के योग्य हो जाते हैं और कम दुःख उठाते हैं तो इसको हम पुण्य कर्म कहने लग जाते हैं और खुश होते हैं ।
जिस प्रकार बीमारी मनुष्यको दुख ही देती है सुख नहीं दे सकती है उसी प्रकार कर्म भी जीवको दुःख ही देते हैं सुख नहीं दे सकते हैं। बीमारी भी जब मनुष्यको अधिक दबा लेती है, उठने बैठने भी नहीं देती है, होशहवाश भी खो देती है, खाना पीना भी बन्द कर देती है, नींद भी नहीं श्राती है, रात्रि दिन पीड़ा ही होती रहती है, तब वह बीमारी बहुत बुरी और महानिन्द्य कही जाती है; परन्तु जब योग्य औषधि करनेसे वह सह्य बीमारी कम होकर सिर्फ़ थोड़ी-सी कमज़ोरी आदि रह जाती हैं, मनुष्य अपने कारोबार में लगने योग्य हो जाता है, तो खुशियां मनाई जाती हैं, परन्तु यह खुशी उसको बीमारीने नहीं दी है किन्तु बीमारीके कम होने से ही हुई है । इसी प्रकार कर्म भी जब जीवको अच्छी तरह जकड़कर कुछ भी पुरुषार्थ करनेके योग्य नहीं रहने देते हैं तो वे खोटे व पापकर्म कहलाते हैं और जब जीव अपने शुभ परिणामोंके द्वारा कपायोंको मंद करके कमको कमजोर कर देता है जिससे वह पुरुषार्थ करनेके योग्य होकर अपने मुखकी सामग्री जुटाने लग जाता है तो वह उन हलके कर्मोंको शुभ व पुण्य कर्म कहने लग जाता है।
कर्म क्या है, जीवके साथ कैसे उनका सम्बन्ध
नहीं बना सकते हैं। मनुष्योंको उनके कर्म यदि ऐसा ज्ञान और उद्यम करनेकी शक्ति न देते तो वे भी कुछ न कर सकते, यह सब भाग्य वा कर्मोंकी ही तो महिमा है जिससे मनुष्य ऐसे अद्भुत कार्य कर रहे हैं । परन्तु प्यारे भाइयो ! क्या आपके खयालमें तीर्थंकर भगवान्को जो केवलज्ञान प्राप्त होता है, जिससे तीनों लोक सबही पदार्थ उनको बिना इन्द्रियोंके सहारेके साक्षात् नजर श्राने लग जाते हैं तो क्या केवलज्ञानकी यह महान् शक्ति भी कर्मोंकी ही दी हुई होती है ? नहीं ऐसा नहीं है । यह सब शक्ति तो उनको उनके पुरुषार्थके द्वारा कर्मोंके नाश करनेसे ही प्राप्त होती हैं, कर्मोंकी दी हुई नहीं होती है। कर्म तो जीवको कुछ देते नहीं किन्तु बिगाड़ते ही हैं । कमका कार्य तो जीवको ज्ञान या विचारशक्ति वा अन्य किसी प्रकारका बल देना नहीं है, किन्तु इसके विपरीत कमका काम तो जीवके ज्ञान और बल वीर्यको नष्ट भ्रष्ट कर देनेका ही है । ज्ञान और बल वीर्य तो जीवका निज स्वभाव है, जितनाजितना किसी जीव का बलवीर्य नष्ट-भ्रष्ट और कम होरहा है वह सब उसके कर्मशत्रुग्रोंका ही तो काम है, और जितना-जितना जिस किसी जीवमें ज्ञान और बल वीर्य है वह उसका अपना असली स्वभाव है, जिसको नष्ट-भ्रष्ट करने के लिये कर्मोंका काबू नहीं चल सका है। इस कारण मनुष्य अपने ज्ञान और विचार चलने जो यह लाखों करोड़ों प्रकारका सामान बनाता है वह सब अपनी निज शक्तिसे ही बना रहा है, कर्मोंकी दी हुई शक्तिसे नहीं । कर्मोंका काबू चलता तो वे उसकी यह शक्ति भी छीन लेते और कुछ भी न बनाने देते ।
मनुष्योंकी बनिसबत पशुओं पर कमका अधिक काबू चलता है इसी वास्ते उन बेचारोंको यह कम उनकी जरुरतका कुछ भी सामान नहीं बनाने देते हैं । कर्म तो