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वर्ष:, किरण
श्रीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ
स्वरूप भी देखने में आते हैं । उदाहरणके लिये महान् पुनरुक्तताकी वहाँ कोई गन्ध भी मालूम नहीं होती; ग्रंथकारभट्टाकलंकदेवके लधीयस्त्रय'और'न्यायविनिश्चय'- परन्तु टीकाके मंगलाचरण-पद्यमें प्रयुक्त हुए "वषये जैसे कुछ ग्रंथोंको प्रमाणमें पेश किया जा सकता है, समाधिशतकं"--मैं समाधिशतक की व्याख्या करता जिनका पहला पद्य अनुष्टुप् छन्दमें है और जो प्रायः हूँ-इस प्रतिज्ञा वाक्यकी मौजूदगीमें, तीसरे पद्यको अनुष्टुप् छन्दमें ही लिखे गये हैं। परन्तु उनमेंसे प्रत्येक टीकाकारका बतलाकर उसमें प्रयुक्त हुए प्रतिशा-याक्यको का दूसरा पद्य 'शार्दूलविक्रीडित' छन्दमें है, और वह प्रस्तुत स्थलका, श्रावश्यक और अपुनरुक्त समझते हैं, कण्टकशुद्धिको लिये हुए ग्रंथका खास अंगस्वरूप है। तथा दूसरे पद्यको भी टीकाकारका बतलाकर प्रतिशाके सिद्धिविनिश्चय ग्रंथमें भी इसी पद्धतिका अनुसरण पाया अनन्तर पुनः मंगलाचरणको उपयक्त समझते हैं यह जाता है। ऐसी हालतमै छन्दभेदके कारण उक्त दोनों सब अजीब-मी ही बात जान पड़ती है !! मालम होता है पद्योंको प्रक्षिप्त नहीं कहा जामकता।
आपने इन प्रभाचन्द्र के किसी दूसरे टीका ग्रंथके साथ ग्रंथके प्रथम पद्यमें निष्कलात्मरूप सिद्ध परमात्माको इम टीकाकी तुलना भी नहीं की है। यदि रखकरण्ट श्राऔर दूसरे पद्यमें सकलात्मरूप अहत्परमात्माको नमस्कार- वकाचार की टीका के माथ ही दम टीकाकी तुलना की रूप मंगलाचरण किया गया है परमात्मा के ये ही दो मुख्य होती तो श्रापको टीकाकारके मंगलाचरणादि--विषयक अवस्थाभेद हैं, जिन्हें इष्ट समझकर स्मरण करते हुए टाइपका-लेखनशैली का-कितना ही पता चल गया यहाँ थोड़ा-सा व्यक्त भी किया गया है । इन दोनों पद्योंमें होता और यह मालूम होगया होता कि यह टीकाकार ग्रंथ-रचना-सम्बन्धी कोई प्रतिज्ञा-वाक्य नहीं है-ग्रंथक अपनी ऐमी टीका के प्रारम्भमें मंगलाचरण तथा प्रतिज्ञाअभिधेय-सम्बन्ध-प्रयोजनादिको व्यक्त करता हुअा वह का एक ही पद्य देते हैं श्रीर हमी तरह टीका के अन्तमें प्रतिज्ञा-वाक्य पद्य नं. ३ में दिया है; जैमा कि ऊपर उपमहारादि का भी प्रायः एकही पदा रखते हैं और तब उसके उल्लेखसे स्पष्ट है। और इसलिये शुमके ये आपको मूलग्रंथके उन दोनों पयों (नं. २,३)को तीनो पद्य परस्परमें बहुत ही सुमम्बद्ध हैं-उनमेंसे दो बलान टीकाकारका बतलानेकी नौबत ही न पाती। के प्रक्षिप्त होनेकी कल्पना करना, उन्हें टीकाकार प्रभा- हां, एक बात यहाँ और भी प्रकट कर देनेकी है चन्द्र के पद्य बतलाना और उनकी व्यवस्थित टीकाको और यह यह कि, टा० माहब जब यह लिखते हैं कि किसीका टिप्पण कहकर यों ही ग्रंथम घुमड जानेकी बात "पज्यपादानी हा विषय श्रागम, युक्ति प्राणि अंतःकर करना बिल्कुल ही निराधार जान पड़ता है। डा० साहब गाची एकाग्रता करून त्यायोग म्वानुभव संपन्न होऊन प्रथम पद्यमें प्रयुक्त हुए "मायामन्तबोधाय तस्मै त्याच्या प्राधारे स्पष्ट आणि सुलभ रीनीमें प्रतिपादला सिवात्मने नमः"-उस अक्षय-अनन्त बोधस्वरूप परमा- आहे", तब इस बातको भुला देते हैं कि यह पागम, त्माको नमस्कार-इस वाक्यकी मौजूदगीमें, तीसरे पद्यमें युक्ति और अन्तःकरणकी एकाग्रता-द्वारा सम्पन्न स्वानुभव निर्दिष्ट हुए ग्रंथके प्रयोजनको अप्रस्तुत स्थलका के आधार पर ग्रंथरचनेकी बात पूज्यपादने ग्रंथके तीसरे(बेमौका ) बतलाते हुए उसे अनावश्यक तथा पुनरुक्त पद्यमे ही तो प्रकट की है-वहीं से तो वह उपलब्ध तक प्रकट करते हैं, जब कि अप्रस्तुत स्थलता और होती है-; फिर उम पद्यको मूलग्रंथका माननेमे क्यों