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अनेकान्त
ज्येष्ठ वीर निर्वाण सं०२४६ए
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प्रकाशित 'समाधिशतक के मराठी संस्करणकी अपनी ग्रन्थनाम और पद्यसंख्या
प्रस्तावनामें, उसपर कुछ आपत्ति की है । आपकी रायमें यह ग्रन्थ १०५ पद्योंका है, जिनमेंसे दूसरा पद्य ग्रंथका असली नाम 'समाधिशतक' और उसकी पद्य'वंशस्थ' वृत्तमें, तीसरा 'उपेन्द्रवज्रा' में, अन्तिम पद्य संख्या १०० या ज्यादासे ज्यादा १०१ है। आप पद्य'वसंततिलका' छन्दमें और शेष सब 'अनुष्टुप्' छन्दमें नं० २, ३, १०३, १०४ को तो निश्चित रूपसे हैं । अन्तिम पद्यमें ग्रंयका उपसंहार करते हुए, ग्रन्थका (खात्रीन') प्रक्षिप्त' बतलाते हैं और १०५ को 'बहुधा नाम 'समाधितंत्र' दिया है और उसे उस ज्योतिर्मय प्रक्षिप्त' समझते हैं । कैवल्य सुखकी प्राप्तिका उपायभूत-मार्ग बतलाया है 'बहुधा प्रक्षिप्त' समझनेका अभिप्राय है उसकी जिसके अभिलाषियोंको लक्ष्य करके ही यह ग्रंथ लिखा प्रक्षिप्तता में सन्देह का होना-अर्थात् वह प्रक्षिप्त नहीं गया है और जिसकी सूचना प्रतिज्ञावाक्य (पद्य नं०.३) भी हो सकता। जब पद्य नं० १०५ का प्रक्षिप्त होना में प्रयुक्त हुए, 'कैवल्यसुखस्पृहाणां' पदके द्वारा की गई संदिग्ध है तब ग्रन्थका नाम 'समाधिशतक' होना भी है । माथ ही, ग्रंथ-प्रतिपादित उपायका संक्षिप्त रूपमें संदिग्ध होजाता है; क्योंकि उक्त पद्यपर से ग्रंथका नाम दिग्दर्शन कराते हुए, ग्रंथके अध्ययन एवं अनुकल 'समाधितन्त्र' ही पाया जाता है, इसे डाक्टर साहब स्वयं वर्तनका फल भी प्रकट किया गया है। वह अन्तिम स्वीकार करते हैं। अस्तु । सूत्रवाक्य इस प्रकार है:
जिन्हें निश्चितरूपसे प्रक्षिप्त बतलाया गया है, "मुक्त्वा परत्र परबुद्धिमहंधियं च . उनमेंसे पद्य नं. २, ३ की प्रक्षिप्ताके निश्चयका कारण संसारदुःखजननी जननाद्विमुक्तः ।
है उनका छन्दभेद । ये दोनों पद्य ग्रंथके साधारण वृत्त ज्योतिर्मयं सुखमुपैति परास्मनिष्ठ
अनुप छन्द में न लिखे जाकर क्रमशः 'वंशस्थ तथा स्तन्मार्गमेतदधिगम्य समाधितंत्रम् ॥ १०॥ 'उपेन्द्रवज्रा' छन्दोंमें लिखे गये हैं । डाक्टर साहबका प्रायः १०० श्लोकोंका होने के कारण टीकाकार खयाल है कि अनुष्टुप छन्दमें अपने ग्रंथको प्रारम्भ करने प्रभाचन्द्रने इस ग्रन्थको अपनी टीकामें 'समाधिशतक' वाला और आगेका प्रायः सारा ग्रंथ उसी छंदमें लिखने नाम दिया है और तबसे यह 'समाधिशतक' नामसे वाला कोई ग्रंथकार बीच में और खासकर प्रारम्भिक भी अधिकतर उल्लेखित किया जाता है अथवा लोक- पद्यके बाद ही दसरे छन्दकी योजना करके 'प्रक्रमभंग' परिचय में आ रहा है।
नहीं करेगा । परन्तु ऐसा कोई नियम अथवा रूल नहीं मेरे इस कथनको 'जैनसिद्धान्तभास्कर' में-'श्री- है जिससे ग्रंथकारकी इच्छा पर इस प्रकार का कोई पज्यपाद और उनका ममाधितन्त्र' शीर्षकके नीचे- नियंत्रण लगाया जा सके। अनेक ग्रंथ इसके अपवाददेखकर डाक्टर परशुराम लक्ष्मण (पी० एल०) वैद्य, टास्टर साहबने द्वितीय पद्यको 'उपेन्द्रवज्रा' में एम० ए०, प्रोफेसर वाडिया कालिज पनाने, हालमें
और तृतीयको 'वंशस्थ' वृत्तमें लिखा है, यह लिखना * यह लेख जैन सिद्धान्तभास्करके पांचवें भागकी आपका छन्दःशास्त्रकी दृष्टि से ग़लत है और किसी भूलप्रथम किरणमें प्रकाशित हुआ है।
का परिणाम जान पड़ता है।