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वर्ष २, किरण ]
श्रीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ
१०४ के साथ ठीक जान पड़ती है। जिसके अन्तमें घोषणा करते हैं । इसलिये समाधिततंत्रका पद्म नं. साध्यकी सिद्धि के उल्लेखरूप प्राप्नोति परमं पदम्' वाक्य १०५ पूज्यपादकृत ही है, इसमें सन्देह को जरा भी पड़ा हुआ है और जो इस ग्रन्थके मुख्य प्रयोजन अथवा स्थान नहीं है।
आत्माके अन्तिम ध्येयको स्पष्ट करता हुआ विषयको जब पद्य नं० १०५ असन्दिग्धरूपसे पूज्यपादकृत समाप्त करता है।
है तब ग्रन्थका असली मूलनाम मी 'समाधितन्त्र' ही है। अब मैं पद्य नं० १०५ को भी लेता हूँ, जिसे डा. क्योंकि इसी नामका उक्त पद्यमें निर्देश है, जिसे डा. क्टर साहबने सन्देह-कोटिमें रक्खा है। यह पद्य संदिग्ध साहबने भी स्वयं स्वीकार किया है। और इसलिये नहीं है, बल्कि मूलग्रंथका अन्तिम उपसंहार पद्य है; 'ममाधिशतक' नामकी कल्पना बादकी है--उसका जैमा कि मैंने इस प्रकरणके शुरू में प्रकट किया है। अधिक प्रचार टीकाकार प्रभाचन्द्र के बाद ही हुआ है। पज्यपादके दूसरे ग्रंथोंमें भी, जिनका प्रारम्भ अनुरूप श्रवणबेल्गोलके जिस शिलालेख नं० ४० में इस नामका छन्दके पद्यों द्वारा होता है, ऐसे ही उपमहारपद्य पाये उल्लेख पाया है वह विक्रमकी १३वीं शताब्दीका है जाते हैं जिनमें ग्रंथकथित विषयका मंक्षेपमें उल्लेग्य करने और टीकाकार प्रभाचन्द्रका समय भी विक्रमकी १३वीं हुए ग्रंथका नामादिक भी दिया हुआ है । नमूने के तौर शताब्दी है। पर 'इष्टोपदेश' और 'मर्वार्थमिद्धि' ग्रंथों के दो उपसंहार- इस तरह इस ग्रंथका मूलनाम 'समाधितंत्र' उत्तर पद्योंको नीचे उद्धृत किया जाता है:
नाम या उपनाम 'समाधिशतक' है और इसकी पद्यइष्टोपदेशमिति सभ्यगधीत्य धीमान् मंग्ख्या १०५ है-उसमें पाँच पद्योंके प्रक्षिप्त होनेकी जो मानापमानसमता स्वमताद्वितन्य । कल्पना की जाती है वह निरी निर्मल और निराधार है। मुक्ताग्रहो विनिवसन्सजने वने वा ग्रंथकी हस्तलिखित मूल प्रतियों में भी यही १०५ पद्यमुक्तिश्रियं निरुमामुपयाति भन्यः ॥" संख्या पाई जाती है । देहली श्रादिके अनेक भण्डा
-इष्टोपदेशः । रोम मुझे इस मलग्रंथकी हस्तलिखित प्रतियोंके देखने स्वर्गाऽपवर्गसुखमा मनोभिराय- का अवसर मिला है-देहली-सेठके कूँचेके मन्दिर में जैनेन्दशासनवरामृतसारभूता।
तो एक जीर्ण-शीर्ण प्रति कईसौ वर्षकी पुरानी लिखी सर्वार्थसिद्धिरिति समिक्षपात्तनामा हुई जान पड़ती है । श्रारा जैन-सिद्धान्त भवनके अध्यक्ष तस्वार्थवृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या ॥ पं० के० भुजबलीजी शास्त्रीसे भी दर्याफ्त करनेपर यही
-मर्वार्थमिद्धिः मालम हुआ है कि वहाँ ताडपत्रादि पर जितनी भी इन पद्यों परसे पाटकोको यह जानकर श्राश्चर्य होगा मूलप्रतियाँ है उन सबमें इस ग्रन्थकी पद्यसंख्या १०५ कि ये दोनों पद्य भी उमी वमन्नतिलका छन्द, लिग्वे ही दी है। और इसलिये डा०साहबका यह लिखना उचित गये हैं जिसमें कि समाधितंत्रका उक्त उपसंहार-पद्य पाया प्रतीत नहीं होता कि 'इस टीकासे रहित मूलग्रंथकी जाता है। तीनों ग्रंथोंके ये तीनों पद्य एक ही टाइपके है हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध नहीं है।' और वे अपने एक ही प्राचार्यद्वारा रचे जानेको स्पष्ट ऐसा मालम होता है कि 'शतक' नामपरसे ग.