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अनेकान्त .
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ज्येष्ठ वीर निर्वाण से०२४१
इनकार किया जाता है और यदि यह बात उनकी खुदकी विषय और पूर्वपद्यों के साथ इनके प्रतिपाद्य-विषयक जाँच पड़ताल तथा अनुसंधानसे सम्बन्ध रखती हुई होती असम्बद्धता बतलाते हैं---लिखते हैं "या दोन तो वे आगे चलकर,कुछ तत्सम-अन्योंकी सामान्य तुलना मेकांच्या प्रतिपाद्य-विषयांशी व पूर्व श्लोकांशी काहींच का उल्लेख करते हुए, यह न लिखते कि 'उपनिषद् संबन्ध दिसत नाही ।" साथ ही, यह भी प्रकट ग्रंथके कथनको यदि छोड़ दिया जाय तो परमात्मस्व- करते हैं कि ये दोनों श्लोक कब, क्यों और कैसे इस रूपका तीन पदरूप वर्णन पूज्यपादने ही प्रथम किया है ग्रंथमें प्रविष्ट (प्रक्षिप्त ) हुए हैं उसे बतलानेके लिये वे ऐसा कहने में कोई हरकत नहीं'; क्योंकि पूज्यपादसे असमर्थ हैं । पिछली बातके अभावमें इन पद्योंकी प्रक्षिपहले कुन्दकुन्दके मोक्षप्राभृत (मोक्खपाहुड) ग्रन्थमें ताका दावा बहुत कमज़ोर होजाता है; क्योंकि असम्बद्धविधात्माका बहुत स्पष्टरूपसे वर्णन पाया जाता है और ताकी ऐसी कोई भी बात इनमें देखनेको नहीं मिलती। पूज्यपादने उसे प्रायः उसी ग्रंथपरसे लिया है; जैसा कि टीकाकार प्रभाचन्द्रने अपने प्रस्तावना-वाक्योंके द्वारा नमूने के तौर पर दोनों ग्रंथोंके निम्न दो पद्योंकी तुलनासे पूर्व पद्योंके माथ इनके सम्बन्धको भले प्रकार घोषित प्रकट है और जिससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि ममा- किया है । वे प्रस्तावना वाक्य अपने अपने पद्यके साथ धितंत्रका पद्य मोक्षप्राभृतकी गाथाका प्रायः अनुवाद इस प्रकार हैं:
"ननु यचास्मा शरीरास्सर्वथा भिमस्तदा कथमात्मनि तिपयारो सो अप्पा परमंतरवाहिरो हु दे हीणं। चलति नियमेन तचलेत् तिष्ठति तिष्टेदिति वदन्तं प्रत्याहतत्य परो माइज्ज अन्तोषाएल चयहि बहिरप्पा प्रवनादात्मनो बापुरिच्छादेवप्रवर्तितात् । -मोक्षप्राभूतः
वायोः शरीरयंत्राणि वर्तन्ते स्वेषु कर्मसु ॥१०३॥" बहिरन्तः पररचेति निधारमा सर्वदेहिषु । "तेषां शरीरयन्त्राणामात्मन्यारोपाऽमारोपी कृत्वा उपेयात्तत्र परमं मध्योपाचावहिस्त्यजेत् ॥ अविवेकिनौ किं कुर्वत इत्याह
-ममाधितंत्रम् तान्यात्मनि समारोप्य साक्षाण्यास्ते सुखं जहः । मालूम होता है मैंने अपने उक्त लेखमें ग्रंथाधारकी त्यक्त्वाऽऽरोपं पुनर्विद्वान् प्राप्नोति परमं पदम् ॥१०॥" जिस बातका उल्लेख करके प्रमाणमें ग्रन्थ के पद्य नं०३को इन प्रस्तावना-वाक्योंके साथ प्रस्तावित पद्योंके अर्थको उद्धृत किया था और जो ऊपर इस प्रस्तावना-लेखमें देखकर कोई भी सावधान व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि भी पद्य नं. ३ के साथ ज्योकी त्यों दी हुई है उसे डा. इनका ग्रंथके विषयतथापर्व पद्योंके साथ कोई सम्बन्ध नहीं साहबने अनुवादरूपमें अपना तो लिया परन्तु उन्हें यह है-जिस मूलविषयको ग्रन्थमें अनेक प्रकारसे पुनः पुनः खयाल नहीं पाया कि ऐसा करनेसे उनके उस मन्तव्य- स्पष्ट किया गया है उसीको इन पद्योंमें भी प्रकारान्तरसे का स्वयं विरोध होजाता है जिसके अनुसार पद्य नं ३को और भी अधिक स्पष्ट किया गया है और उसमें पुनरुक्तता निश्चितरूपसे प्रक्षित कहा गया है । अस्तु ।
जैमी भी कोई बात नहीं है। इसके सिवाय, उपसंहारअब रही पद्य नं. १०३, १०४ की बात, इनकी पाके पर्व, ग्रंथके विषयकी ममामि भी 'मदुःखमावितं' प्रक्षिप्तताका कारण डा. साहय ग्रन्थके प्रतिपाद्य नामके भावनात्मक पद्य नं. १०२ की अपेक्षा पद्य नं.