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वर्ष २, किरण ७ ]
धन्य है मनुष्य ! तेरे पुरुषार्थको, धन्य है तेरे साहसको, जो ऐसी ऐसी भयंकर शक्तियोंके कान पकड़ कर उनसे कैसी कैसी सेवा ले रहा है, मीलों गहरे और हजारों मील लम्बे चौड़े समुद्रकी छाती पर हजारों मनुष्यों और लाखों मन बोसे लदा हुआ भारी जहाज़ इस तरह लिये फिरता है, जैसे कोई बच्चा अपने घर के आँगनमैं किसी खिलोनेसे खेलता फिरता हो, और अब तो श्राकाशमें हवाई जहाज़ इस तरह उड़ाये फिरता है जैसे देवतागण विमान में बैठे श्राकाशकी सैर करते फिर रहे हों । श्राकाशकी कड़कती बिजलीको काबू करके उससे भी आटा पिसवाना, पंखा चलाना, कुत्रोंसे पानी निकलवाना, रेलगाड़ी चलाना, श्रादि सब ही कामलेना शुरु कर दिया है । गङ्गा-यमुना जैसी बड़ी-बड़ी भयंकर नदियोंको काबू करके उनसे भी आटा पिसवाता है, और खेतोंकी सिंचाई के वास्ते गाँव-गाँव लिये फिरता है । धरतीकी छाती बींधकर उसमेंसे पानी निकालना तो बच्चा ही खेल हो गया है । वह तो उसकी छाती खूब गहरी चीर कर उसमेंसे तेल, कोयला, लोहा, पीतल, सोना, चाँदी आदि अनेक पदार्थ खींचलाता है । निःसन्देह मनुष्यका पुरुषार्थ अपरम्पार है जो महाविशाल - काय हाथीको पकड़ लाकर उन पर सवारी करता है और महा भयंकर सिंहोंको पकड़ लाकर उनसे सरकसका तमाशा कराता है ।
- भाग्य और पुरुषार्थ
गरज कहाँतक गीत गाया जाय, पुरुषार्थका मद्दारम्य तो जिह्वासे वर्णन ही नहीं किया जा सकता है और न किसीसे उसकी उपमा ही दी जा सकती है। हाँ, इतना और भी समझ लेना चाहिये कि जो पुरुषार्थ करते हैं वे मालिक बनते हैं और जो पुरुषार्थहीन होकर अपने कर्मोंके ही भरोसे बैठे रहते हैं वे गुलाम बन जाते हैं और पशुओंके समान समझे जाते हैं ।
एक बात और भी कह देने की है और वह यह कि मनुष्योंकी बस्तीमें चोर, डाकू, जालिम, हत्यारे, राक्षस, लोभी, मानी, विषयी सबही प्रकारके मनुष्य होते हैं, मांस शराब व्यभिचार श्रादिक सभी प्रकारके कुव्यसनोंकी दुकानें लगी रहती और चारों तरफ विषय-कषायोंमें फँसने के ही प्रलोभन नज़र आते हैं।
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मुनि महाराज तो ऐसे भयंकर संबोधमें अपने परिणामों को संभाले रखना अपनी सामर्थ्य से बाहर समझ बस्तीको छोड़ बनको चले जाते हैं, परन्तु सद्गृहस्य बेचारा कहाँ चला जाय ? उसको तो इन सब प्रकारके तुट मनुष्यों और खोटे प्रलोभनोंमें ही रहना होता है। इनहीके बीच में वह इस प्रकार रहता है जैसे पानी में कमल । इस कारण सद्गृहस्थका पुरुषार्थ मुनियोंके पुरुषार्थसे भी कहीं अधिक प्रशंसनीय और बलवान् है, जिससे पुरुषार्थकी महान् सामर्थ्यका पूरा पूरा अन्दाजा हो जाता है । धन्य हैं वे सद्गृहस्थ जो इस पुरुषार्थका सहारा लेकर कर्मोंका भी मुकाबिला करते हैं और निमित्त कारणोंका भी अपने ऊपर काबू नहीं चलने देते हैं, कायर और अकर्मण्य बनकर इस प्रकार नहीं लुढ़कते फिरते हैं, जैसे पत्थर वा लकड़ीके टुकड़े नदीके भारी बहावमें बहते और लुढ़कते फिराकरते हैं ।
हमारी भी यही भावना है कि हम लकड़ी पत्थर की तरह निर्जीव न बनकर पुरुषार्थी बनें और अपने मनुष्य जीवनको सार्थक कर दिखावें ।
" बहुत रुलो संसारमें, बश प्रमादके होय । अब इन तज उद्यम करो, जातै सब सुख होय ।। "
"भाग्य भरोसे जे रहें, ते पाछे पछताय । काम बिगाड़ें आपनो, जगमें होत हँसाय ॥"
* यह विवेचनात्मक लेख भाग्यके मुकाबले में पुरुषार्थ से प्रोत्तेजन देने और उसकी महत्ता स्थापित करनेके लिये बहुत अच्छा तथा उपयोगी है; परन्तु इसकी सिद्धान्त-विषयक कुछ कुछ बातें खटकती हुई तथा एकान्तके लिबास में लिपटी हुई-सी जान पड़ती हैं। लेखक महोदय उन सबके लिये स्वयं ज़िम्मेदार हैं।
-सम्पादक