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अनुसन्धान
अपराजितसूरि और विजयोदया
[लेखक-पं. परमानन्दजी जैन शाबी]
निम्बर जैन ग्रन्थोंके टीकाकारों में अपराजितसरि- नीयसूरिचडामणि' तथा 'जिनशासनोद्धरणधीर' तक
का नाम भी खास तौरसे उल्लेखनीय तथा लिखा है । प्रापकी कृतियोंमें 'भगवती आराधना' की गौरवको प्राप्त है। आपका दूसरा नाम 'श्रीविजय' एक संस्कृत टीका ही इस समय उपलब्ध है, जिसका अथवा 'विजय' है, जो कि 'अपराजित' का ही पर्याय- नाम 'विजयोदया। यह टीका बड़े महत्वको। नाम जान पड़ता है। पं. पाशाधरजीने 'मूलाराधना- सूक्ष्मदृष्टिसे अवलोकन करने पर इसकी उपयोगिताका दर्पण' में इम नामके साथ आपका तथा आपके वास्यो. सहज ही में पता चल जाता है-इसमें शेय पदार्थोफा का बहुत कुछ उल्लेख किया है। आप अपने समयके अच्छे ढंगसे प्रतिपादन किया गया है और यह पढ़ने में बड़े भारी विद्वान् थे--दिगम्बर-श्वेताम्बर-साहित्यसे पड़ी ही रुचिकर मालूम होती है। इस टीकाके एक केवल परिचित हीन थे किन्तु दोनोंके अन्तस्तत्त्वके मर्म- उल्लेख परसे यह भी जाना जाता है कि अपराजिनको भी जाननेवाले थे। न्याय, व्याकरण, काव्य, कोश सरिने 'दशकालिक' ग्रन्थपर भी कोई महत्वकी टीका और अलंकारादि विषयों में भी आपकी अच्छी गति थी। लिखी है. जिसकी खोज होनी चाहिये। भगवती आराधनाकी टीका-प्रशस्तिमें प्रापको 'मारा- अपर जितसरि कम हुए, कब उनकी यह 'विजयोदेखो, 'भनेकान्त ,कि.१५.१.पर
दया' टीका लिखी गई और उनकी दूसरी रचनाएँ स्या 'भगवती भाराषवाको दूसरी जटिपरिणी नाम क्या है, ये सब बातें अभी बहुत कुछ अन्धकारमें है। सम्पादकीय बेला
का प्रशस्तिमें भी इनका कोई उस नहीपा
नाचाया