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वर्ष २. किरण
अपराजितपरिऔर बिजोरया
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दी थीं उनमेंसे तीन गाथाओंको अपराजितसूरिने भी सम्पगितिविशेष.............................. उद्धृत किया है । जैसा कि टीकामें दिये हुए कालपरि- पूनापुरत्सरा किया सत्कार संपतो महानिति बोके वर्तनके निम्न स्वरूपसे प्रकट है:
प्रकाश बोक्तिः एषमागेवीसितमपुरिय पारी(1) गाथा १...-मस्य गावापाः प्रपंचया- कि विग्यसुखं पनपेष किपमाणो नियोतिति पा-"उत्सपिल्याः प्रथमसमये नाता पबिग्जीवा परिगीतेति प्रतिपयर्थ-सम्पगिति विशेषणमुपदीयते" स्वायुपपरिसमासौ एतः स एव पुनःहितीपाषा उत्सर्पि
-तत्त्वा० रा०६-४, बा.२,. स्या दितीयसमये जातः स्वायुषः सयान्मतः । स एवं कापवाल्मनःकर्मयां प्राकाम्यामानोनिग्रह पर पुनस्तृतीपाया उत्सर्पिरुपास्तृतीयसमये जातः, एवमनेन चरितामागो गुतिः । सम्पगिति विशेषणात् पूजापुरत्सव क्रमेण उत्सर्पिणी परिसमाता तथा भवसर्पिणी []। कियां संयतो महानपमिति पशबामपेज पारतोषिक एवं जन्मनरंतर्यमुक्तं । मरणस्यापि नैरंतर्ष प्रायमेवं मिन्द्रिपसुख वा क्रियमाणा गुसिरिति कथ्यते ।" ताबकालपरिवर्तनम् । उक्तंच
-भग० श्रा० गाथा ११५ उपसप्पिणिभवसप्पिणिसमयावलियासु णिखसेसासु। अकलंकदेवका समय विक्रमको ७वीं शताब्दी भादो मदो य बहुसो भमणेण दुकाबसंसारे ॥" सुनिश्चित है-वि० संवत् ७००में उनका बौद्धों के साथ
(सर्वार्थ०२--१०) महान्वाद हुआ है और वे बौद्ध विद्वान् धर्मकीर्तिके अपराजितसूरिने अपनी इस टीकामें, भट्टाकलंक- समकालीन थे। अतः अपराजितसूरिका समय विक्रमकी देवके तत्त्वार्थराजवार्तिकका भी कुछ अनुसरण किया ७वीं शताब्दीके बाद का जान पड़ता है। और चूँकि, है, जिसके दो नमूने इस प्रकार है
जहाँतक मैंने इस टीकाको तुलनात्मक दृष्टि से अवलोकन "साभ्यायाः क्रियायाः साधनानां समभ्यासीकरणं किया है, मुझे इसमें अकलंकके बाद होनेवाले किसी समाहारः समारम्भः।"
प्रसिद्ध आचार्यका अनुकरण अथवा अवलम्बन मालम -तत्त्वा० रा०, ६-८ के वार्तिकका भाष्य । नहीं होता, इसलिये मेरी रायमें यह टीका ८वीं शताब्दीके "साभ्याषा हिंसादिक्रियायाः साधनानां समाहारः मध्यकालकी बनी हुई होनी चाहिये । और ऐसी हालतमेंसमारम्भः।".
अपराजितसूरिका ममय अनुमानतः विक्रमकी ८वी -भग० श्रा० टी० गाथा ८११ शताब्दीका मध्यकाल ही उपयुक्त जान पड़ता है। "प्राकाम्याऽभावो निग्रहः॥प्राकाम्यं पहुंचारित्रं मेरे इस कथनका ममर्थन सम्पादक श्री जुगलतस्थाभावो निग्रह इत्याल्यायते । योगल्य निग्रहः किशोरजीके उस फुटनोटसे भी होता है जिसे उन्होंने योगनिग्रहः।
५० नाथूरामजी प्रेमीके 'भगवनीबाराधना और उसकी • इन दोनों अवतरणाम जो परस्पर थोड़ा-सा टीकाएँ' शीर्षक लेखके नीचे दिया था और जो निम्न साधारण भेद दृष्टिगोचर होता है उसका कारण दोनों प्रकार है:ग्रन्थोंकी वर्तमान मुद्रित प्रतियोंका ठीक तौर पर सम्पादित "इस टीकाके कर्ता प्राचार्य अपराजित अपनेको'चन होना भी हो सकता है।
न्द्रनन्दीका प्रशिष्य और बलदेवमूरिका शिष्य लिखते हैं।