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अनेकान्त ...............ज्ये, वीर-निर्वाण सं. २४६५
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चन्द्रनन्दीका सबसे पुराना उल्लेख जो अभी तक पुष्टि मिलती है । दूसरे विद्वानों को भी इस विषय में विशेष उपलब्ध हुआ है वह श्रीपुरुषका दानपत्र है, जो 'गोव- अनुसन्धानके साथ अपना अभिमत प्रकट करना चाहिये पैय' को ई. सन् ७७६ में दिया गया था । इसमें गुरु- और ऐसा यत्ल करना चाहिये जिससे अपराजितसूरिका रूपसे विमलचन्द्र, कीर्तिनन्दी, कुमारनन्दी और 'चन्द्र- समय और भी अधिक स्पट ताके माथ सुनिश्चित हो जाय । नन्दी नामके चार प्राचार्योंका उल्लेख है ( S. I. J. श्राशा है विद्वज्जन मेरे इस निवेदन पर अवश्य ही Pt. II, 88 )। बहुत सम्भव है कि टीकाकारने ध्यान देने की कृपा करेंगे। इन्हीं चन्द्रनन्दीका अपनेको प्रशिष्य लिखा हो। यदि अब मैं 'विजयोदया' टीकाके विषय में कुछ थोड़ाऐसा है तो इस टीकाके बनने का समय ८ वीं-६वीं शता- सा और भी परिचय अपने पाठकों को करा देना चाहता म्दी तक पहुँच जाता है। चन्द्रनन्दीका नाम 'कर्मप्र- हूँ। यह टीका 'भगवती श्राराधना' की उपलब्ध टीकाकृति' भी दिया है और 'कर्मप्रकृति' का वेलरके १७वें ओंमें अपनी खास विशेषता रखती है, इसमें प्रकृत शिलालेखमें अकलंक देव और चन्द्रकीर्ति के बाद होना विषयसे सम्बन्ध रखने वाले सभी पदार्थों के रहस्यका बतलाया है, और उनके बाद विमलचन्द्र का उल्लेख उद्घाटन युक्ति और अनुभवपूर्ण पण्डित्यके साथ किया किया है। इससे भी इसी समयका समर्थन होता है। गया है। वस्तुतत्त्व के विज्ञासुत्रों और खासकर सल्लेबलदेवसूरेका प्राचीन उल्लेख श्रवणबेलगोलके दो शिला- खना या समाधिमरणका परिज्ञान प्राप्त करने के इच्छुकोंसेखो नं. ७ और १५ में पाया जाता है, जिनका के लिये यह बड़े ही कामकी चीज़ है। अाठ श्राश्वासों समय फमराः ६२२ और ५७२ शक संवत्के लगभग या अधिकारों में इसकी समाति हुई है और ग्रन्थसंख्या, अनुमान किया गया है। बहुत सम्भव है कि इन्हीं में से हस्तलिखित प्रतियों के अनुसार, सब मिलाकर १३ हजार कोई बल देवसूरि टीकाकारके गुरु रहे हों। इनके समयसे श्लोक प्रमाण है। विद्वानोंके लिये यह अनुभव तथा भी उक्त समयको पुष्टि मिलती है। इसके सिवाय, नाग- विचारकी बहुत-सी सामग्री प्रस्तुत करती है। नन्दीको भी टीकाकारने जो अपना गुरु बतलाया है वे इस टीकापर से यह भी पता चलता है कि इसके वे ही जान पड़ते हैं जो 'असग'कविके गुरु थे और उनका पूर्व 'भगवती आराधना' पर और भी कितनी ही टोकाएँ मी समय ८वी-हवीं शताब्दी है। इस घटना-समुच्चय बनी हुई थीं, जिनका उल्लेख इम टोकामें 'केचित्', परसे यह टीका प्रायः ८ वी हवीं शताब्दीकी बनी हुई 'अपरे', 'परे', 'अन्ये', 'कांचिद्व्याख्यानं', 'अन्येषां जान पड़नी है।"
व्याख्यानं' श्रादि शन्दोंके द्वारा किया गया है। और बादको मुख्तार साहबने अनेकान्तकी गत छटी जिसके कुछ नमूने इस प्रकार हैं:किरणमें प्रकाशित अपने 'अन्तरद्वीपज मनुष्य' शीर्षक (गाथा ०१.) "तस्मिन् सोचते बोचस्थिते लेखमें, इस समयको विक्रिमकी ८वीं शताब्दी तक ही इति केचित् ।' 'भन्मे तु वदम्ति 'खोयगई इति पठंसः सीमित किया है, जिससे मेरे उक्त कथनको और भी खोचंगतः प्राप्तः तस्मिम्मिति" ।
देखो भनेकान्त, प्रथम वर्ष, किरण, पृ०१८ (गाया .101) "प्राचार्याखां म्याल्यादृणा के दूसरे कानमा कुरमोट
दर्शनेन मतभेदेन । केचिसिपमुखेनैवं सूत्रार्थमुपपाव