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अनेकान्त
[वैशाख, वीर निर्वाण सं०२४६५
सेठ सुगनचन्दजी और उनके पिता राजा हर- सेठानी पर मुर्दनी-सी छागई, न जाने वह सुखरायजीने भारतके भिन्न-भिन्न स्थानोंमें कोई कैसे घर पहुँची। और वह फ़ैशनेबिल स्त्री !! म'६०-७० जैन मन्दिर बनवाए हैं।
न्दिरमें ही समा जानेको राह देखने लगी! सेठानीने दूसरोंको उपदेश देनेकी अपेक्षा स्वयं जीवन- घर पाने पर रोकर अपराध पूछा तो सेठजी बोलेमें उतारना उन्हें अधिक रुचिकर था । उन्होंने "देवी ! अपराधी तुम नहीं, मैं हूँ ! मैंने उस स्त्रीमन्दिरमें देखा कि एक स्त्री आवश्यकतासे अधिक को समझानेकी शुभ भावनासे तुम्हारा इतना बड़ा चटक-मटकसे आती है। सेठजीको यह ढंग पसन्द तिरस्कार किया है। अपनी समाजका चलन न न था। उन्होंने सोचा यदि यही हाल रहा तो और बिगड़ने पाए इसी ख्यालसे यह सब कुछ किया भी बहु-बेटियों पर बुरा असर पड़े बरौर न रहेगा। है।" उसदिनके बाद सेठजी के जीतेजी किसीने बिरादरीके सरपंच थे, चाहते तो मना कर सकते उनकी उक्त आज्ञाका उलंघन नहीं किया । थे, किन्तु मना नहीं किया और जिस टाइम पर * * * वह फैशनेबिल स्त्री दर्शनार्थ आती थी, उसी मौक.. एकबार सेठ साहबने नगर-गिन्दौड़ा किया। पर अपनी स्त्रीको भी ज़रा अच्छी तरह सज-धजसे सारी देहलीकी जनताने श्रादर-पूर्वक गिन्दौड़ा आनेको कह दिया। शाही खजाँचीकी स्त्री, सजनेमें स्वीकृत किया। केवल एक स्वाभिमानी साधारण क्या शक होता ? स्वर्गीय अप्सरा बनकर मन्दिरमें परिस्थितिके जैनीने यह कहकर गिन्दौड़ा लेनेसे प्रविष्ट हुई तो सेठ साहबने दूरसे ही कहा-"यह इनकार कर दिया कि "मेरे यहाँ तो कभी ऐसा कोन रण्डी मन्दिरमें घुसी जारही है ?" टहला होना है नहीं,जिसमें सेठ साहबके गिन्दौड़ों
सेठानीने सुना तो काठमारी-सी वहीं बैठ गई, के एवजमें मैं भी कुछ भिजवा सकू, इसलिये मानों शरीरको हजारों बिच्छुओंने उस लिया। मैं ........" मन्दिरका व्यास सेठ साहबकी आवाज सुनकर पाया सेठजीने उस गरीब साधर्मी भाईकी स्वाभितो सेठानीको देखकर भौंचकसा रह गया । उससे मान भरी बात कर्मचारियोंसे सुनी तो फूले न उत्तर देते नहीं बना कि, सेठ साहब, यह रण्डी समाये और स्वयं सवारीमें बैठ नौकरोंको साथ ले नहीं आपकी धर्मपत्नी है। व्यासको निरुत्तर गिन्दौड़ा देने गये। दुकानसे २०-३० गजकी दूरीसे देख सेठ साहब वहाँ स्वयं आए और बोले- आप सवारीसे उतरकर अकेलेही उसकी दूकान पर "मोह ! यह सेठानी है, यह कहते हुए भय लगता गए और जयजिनेन्द्र करके उसकी दुकानमें बैठ था। खबरदार ! यह वीतरागका दरबार है, यहाँ गये। थोड़ी देर बाद बातचीत करते हुए दुकानमें कोई भी कामदेवका रूप धारण करके नहीं था- बिक्रीके लिये रक्खे हुए चने और गड़के सेव उठासकता । चाहे वह राजा हो या रंक, रानी हो या कर खाने लगे। चने सेव खानेके बाद पीनेको बान्दी । यहाँ सबको स्वच्छता और सादगीसे माना पानी माँगा तो गरीब जैनी बड़ा घबड़ाया । मैलीसी चाहिये।
टूटी सुराही और भदा-सा गिलास, वह कैसे सेठ