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वर्ष २, किरण ७]
हेमचन्द्राचार्य-जैनशानमन्दिर
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शानमन्दिरके निर्माता और प्रेरक अपार लक्ष्मीका सदुपयोग किया था। गुजरातके ये यह शान-मन्दिर पाटण-निवासी तथा बम्बईके सब शानभंडार जैनाचार्योंकी प्रबल प्रेरणासे स्थापित हुए प्रसिद्ध जौहरी सेठ हेमचन्द मोहनलालजीने बनवाया थे, फिर भी किसीको यह समझनेकी भल न करनी है। आपके पिता श्री सेठ मोहनलाल मोतीचन्दजीको चाहिये कि इनमें मात्र जैन-धर्मके साहित्यको ही एकत्र प्रवर्तक मुनि श्रीकान्तिविजयजी महाराजने उपदेश किया जाता होगा। ऐसा नहीं है-न भंडारोंमें तो देकर ऐसे मन्दिरकी भारी आवश्यकता बतलाई थी वेद, उपनिषद, गीता, जैनागम और बौर-पिटकोंसे
और उनके भीतर उसके निर्माणकी भावनाको जागृत लेकर न्याय, व्याकरण, ज्योतिष, वैद्यक, नाटक, छंद, किया था । वे स्वयं अपनी भावना पूरी नहीं कर सके अलंकार, काव्य, कोशादि सभी विषयोंके मूल ग्रंथ बड़ी परन्तु सेठ हेमचन्दजीने पिताकी भावनाको मान देकर लगन तथा दिलचस्पीके साथ इकट्ठे किए जाते थे और उसे मस्तक पर चढ़ाया और उसकी पर्त्यर्थ मन्दिर- इस प्रकार भारतवर्षकी अमूल्य शान लक्ष्मी वहाँ एकत्र निर्माणके लिये ५१००० रु. की स्वीकृति श्रीसंघको होती थी। प्रदान करके एक सत्पुत्रका श्रादर्श सबोंके सामने इन भण्डारोंके द्वारा शानलक्ष्मीकी जो विरासत रक्खा । आपकी इस ५१ हजारकी भारी रकमसे ही गुजरातको प्राप्त हुई है उसमें पाटणका नाम सर्वोपरि शान-मन्दिरकी बिल्डिंग तय्यार हई है, जिसके उदघा- है। पाटण में आज जुदा-जुदा पाठ मुख्य शान-भण्डार टन अवसर पर मन्दिरके निर्वाहार्थ अापने दस हज़ार है, जिनमें ताड़पत्र तथा कागज पर लिखी हुई हजारो रुपयेकी और भी सहायता प्रदान की है। अपनी इस ग्रंथ प्रतियाँ मौजद हैं-उनकी कीमतका कोई तखमीना महती उदारता और सुदूरदृष्टताके लिये सेठ हेमचन्दजी नहीं किया जा सकता । विद्वान् लोग इस संग्रहको देख निःसन्देह बहुत ही प्रशंसाके पात्र हैं, उन्होंने अपनी कर चकित होते हैं । संस्कृत साहित्यके प्रेमी पिटर्सन इस पुनीत कृतिसे जगतको अपना ऋणी बनाया है। साहबने इन भण्डारोंको 'अद्वितीय' लिखा है। यहौदाश्रीकान्तिविजयजी महाराजकी श्रुतभक्ति, पुरातनसाहि- नरेश स्व. महाराजा सयाजीराव गायकवाड़को अपने त्यक-रक्षाकी शुभभावना, समयोचित सूझ-बूझ और राज्यके इन शानभण्डारोंका बड़ा अभिमान था ।इन दूरदृष्टिताकी भी प्रशंसा किये बिना नहीं रहा जा सकता, भण्डारोंसे समय-समय पर ऐसे हिन्दू, बौद्ध तथा जैनग्रंथ जिनकी सत्प्रेरणाका ही यह सब सुफल फला है। उपलब्ध होते रहे हैं, जो अन्यत्र कहीं भी नहीं पाये जाते मन्दिर निर्माणका उद्देश्य
हैं। हालमें भट्टाकलंकदेवका 'प्रमाण-संग्रह' ग्रन्थ मी गुजरातके महाराजा श्री सिद्धराज जयसिंहदेव बड़े- स्वोपज्ञभाष्य सहित यहींके भण्डारसे मुनि श्री पुण्यविजयही विद्वतोमी तथा साहित्यरसिक थे। उन्होंने अपनी जीके सटायल-द्वारा उपलब्ध हुना है, जो दिगम्बर जैनोंराजधानी अणहिलपुर पाटणमें एक राजकीय पुस्तका- के किसी भी भण्डारमें नहीं पाया जाता था। लयकी स्थापना की थी और तीनसौ लेखकों को रखकर इन सब भण्डारोंके बहुमूल्य ग्रंथ संरक्षाकी विशेष प्रत्येक दर्शनके सभी विषयोंसे सम्बन्ध रखनेवाली योजनाओंके साथ निर्माण किये गये एक ही मकानमें पुस्तकोंकी अनेक नकलें कराई थीं। उनके बाद रखे जायँ तो उनका ठीक-ठीक संरक्षण होवे और गुजरातके पराक्रमी अधिपति राजा कुमारपालने इकीस सुव्यवस्था तथा सुविधा होनेके कारण जनता उनसे शान-भण्डार स्थापित किये थे और श्री हेमचन्द्राचार्यके यथेष्ट लाभ उठा सके, इसी उद्देश्यको लेकर बह वर्ष रचे हुए ग्रंथोंकी २१-२१ प्रतियाँ सुवर्णाक्षरोसे लिखाकर हुए पाटणमें इस शान-मन्दिरके निर्माणकी हलचल तैयार कराई थीं। महामन्त्री वस्तुपाल-तेजपाल, मंत्री उत्पन्न हुई थी, जो श्राज बहुत अंथोंमें पूर्ण हो रही है। पेथडशाह और मंडनमंत्री श्रादि दूसरे भी अनेक पुस्खोंने साथ ही उक्त उद्देश्यमें कुछ वृद्धि हुई मी जान पड़ती शान-भण्डारोंकी स्थापनामें अपनी उपार्जन की हुई है-अर्थात् ऐसा मालम होता है कि अब यह ज्ञान