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अनेकान्त
[वैशाख,वीर-निर्वाण सं० २४६५
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सानुरोध विनय करता हूँ कि आप इन वाक्योंके सकता है। परन्तु हम लोगोंको अपने धर्म अपने अनुसार चलकर अपने जीवनको पवित्र बनावें। कर्म पर अटल रहना चाहिये, इसीमें हमारा
भाज भी महात्मा गान्धीने अहिंसाके परम कल्याण है इसीसे हम मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। तस्वके आधार पर ही हमारे इस प्यारे भारतवर्ष- भाइयो ! श्री महावीरकी जन्म-तिथिके दिन को जो परतन्त्रताकी बेड़ीमें जकड़ा हुआ है, स्वतन्त्र भारतवर्षमें छुट्टी मनाई जाय और सरकारकी बनानेका दृढ़ संकल्प किया है और उसी अहिंसाके पोरसे वह दिन प्रत्येक वर्ष छुट्टीका दिन घोषित कर बल पर यह देश स्वतन्त्रताकी ओर अग्रसर हो दिया जाय इस बातका मैं सहर्षअनुमोदन करता हूँ। रहा है। जब कि योरुपमें रक्त-पातकी तैयारियाँ हो जबकि जन्माष्टमी, रामनवमी, शिवरात्रीके दिन रही हैं और युद्धकी भीषण अग्निमें आहुति हो तथा यहाँ तक कि ईसामसीह तथा मुहम्मदके जन्म जानेके भयसे शान्ति-रक्षाकी चेष्टा हो रही है, उस दिनोंकी सार्वजनिक छुट्टियाँ होती हैं, तब मैं नहीं समय हमारे देशमें अहिंसाका सिद्धान्त उन्हें नत- समझता कि श्री महावीरके जन्म दिनकी छुट्टी क्यों मस्तक कर रहा है । अहिंसाका सामना कोई भी न हो । आज भारतवर्षमें जैनियोंकी संख्या ५० शत्रु नहीं कर सकता, अन्तमें उसे परास्त होना लाखसे कम नहीं है। इतनी बड़ी संख्या होते हुए ही पड़ता है।
भी उनके धर्म संस्थापककी जन्म-तिथिको छुट्टी न . भाइयो ! आजकल सुधारकी आँधी बह रही है हो इस बातका मुझे अत्यन्त खेद है । तथा जिसमें स्थान स्थान पर हमें अपने धर्म-पथसे विमुख होने- उन्हें यह छुट्टी प्राप्त हो जाय इस शुभकार्यमें मैं के उपदेश सुनाये जा रहे हैं। अपनी धर्म-रूढ़ियों. सदैव उनके साथ हूँ । लेकिन इस छुट्टीके दिन, को मानने वालोंको कूप मंडूक कहा जारहा है। जैन भाइयोंको यह न चाहिये कि अपना समय मैं आप लोगोंको ऐसे उपदेशोंसे सावधान करता व्यर्थके कार्योंमें गँवावें । उस दिन उन्हें अपने भगहूँ। पापको अपने धर्म-पथसे कदापि बिचलित न वान महावीरके शुभगुणोंका गान करना चाहिये होना चाहिये । अपने धर्मके अनुसार सब कोईको और उनके उपदेशोंको दोहरा कर हृदयंगम करना चलना वांछनीय है, हमारे धर्ममें जो दोष दिखलाते चाहिये, जिससे कि वे अपने धर्मको भूल न जाएँ हैं वे भूल करते हैं। “सहजं कर्म कौन्तेय सदोष उस पर दृढ़ रह कर अपना कल्याण करनेमें समर्थ मपि न त्यजेत्" के अनुसार अपने स्वाभाविक कर्म हों। इतना कह कर मैं अपना भाषण समाप्त करता में दोष भी हो तो उसे न छोड़ना चाहिये । कारण हूँ और अपनी त्रुटियोंके लिये क्षमा प्रार्थी हूँ। भगवान के नामके अतिरिक्त दोष सभीमें पाया जा
(१ अप्रैल ३९)