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सम्यकपण
पथिक [ ले० श्री नरेन्द्रप्रसाद जैन, बी. ए.]
उसके नन्हेसे हृदयमें कितनी पीड़ा थी, कितनी कसक विक्षोभसे भर जाता, यह तलिका रख देता ! उसकी
थी, इसका किसीको अनुमान नहीं ! अशान्तिके दूंची प्रकृतिके ऐसे ऐसे नयनाभिराम हरयोंकी सृष्टि बवण्डर उठते और एक क्षणके लिये उसके मनको करती, परन्तु उसकी आत्मा सन्तुष्ट न होती! उसका उद्वेलित कर देते ! शांति उससे कोसों दूर थी, उसे जी ऊब गया था ! वह कमी कभी वीणा उठा लेता अपने जीवनसे असंतोष था, वह जीवनका अर्थ समझना और गुनगुनाने लगता, परन्तु ऐसा राग न निकाल चाहता पर नहीं समझ पाता था ! जितना ही वह इस पाता जो उसकी प्रास्माको कुछ क्षणके लिये उस लोकमें गुत्थीको सुलझानेका प्रयत्न करता उतना ही वह ले जाता जहाँ सर्वदा शान्ति है, सुख है संतोष है। निराश होता जाता ! उसकी दृष्टि में दुनिया क्या प्रत्येक उसने सोचा शायद देश-भक्ति ही उसको शामिल कार्य हेय था । वह खोजमें था एक ऐसे उद्देश्यकी जो प्रदान कर सके। उसने स्वयंसेवकोंमें नाम लिया उसकी आत्माको स्वीकार हो । एक और ही किसी वस्तु- लिया, नमक कानून तोड़ा, जेल गया, परन्तु उसको का बना हुआ उसका हृदय था । दुनियाने उसे नहीं अभिलिषित वस्तु प्राप्त न हुई ! वह-दिन पर दिन निराश समझा, उसकी दृष्टिमें वह पत्थरका टुकड़ा था, पर होता जाता, उसकी सारी प्राशायें भस्म होती जा रही वास्तवमें वह एक रन था जिसकी भाभा देरमें प्रकट थीं ! उसने प्रकृतिको भी अपनी सहचरी बनाया, वह होती है। उसका दिल रोता था, लेकिन उस विलापको घण्टों सरिताके तट पर बैठा हुआ लहरोका नृत्य देखा संसारने न सुना।
करता, पत्तोंकी मर्मर ध्वनि, वायुका संदेश सुनता, वह एक चित्रकार था, और था एक सफल कला- फूलोंसे बातें करता; परन्तु उसका हृदय संतुष्ट न होता ! कार । सुन्दरसे सुन्दर चित्र बनाता, पर उसकी दृष्टि में व ह अपने हृदयकी पुकार न सुन पाता ! जंचता और मिटा देता ! उस स्वप्नलोककी प्रभाको अपनी कलाके द्वारा चिन्तित करता, पर उसका मन