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श्रनेकान्त
प्रथम-पूज्यपाद से भी पहले अपनी टीकासे अलंकृत किया, यह अभी निश्चित रूपसे नहीं कहा जासकता । इसके लिये विशेष अनुसन्धान की जरूरत है । रत्नमाला कर्ता शिवकोटि पं० जिनदासजी शास्त्रीने 'भगवती श्राराधना' की भूमिका में यह सिद्ध करनेकी चेष्टा की है कि रत्नमाला ग्रंथके कर्त्ता शिवकोटि ही समन्तभद्र के शिष्य हैं और उन्हींके द्वारा यह भगवती श्राराधना ग्रंथ रचा गया है। उनकी यह कल्पना बिल्कुल ही निराधार जान पड़ती है।
'रत्नमाला' एक छोटासा संस्कृत ग्रंथ है, जिसकी रचना बहुत कुछ साधारण है और वह माणिकचंदग्रंथमाला 'सिद्धान्तसारादिसंग्रह' में प्रकाशित भी हो चुका है। उसका गवेषणापूर्वक अध्ययन करनेसे पता चलता है कि यह ग्रंथ श्रधुनिक है, शिथिलाचारका पोषक है और किसी भट्टारकके द्वारा रचा गया है। इसकी रचना 'यशस्तिलकचम्पू' के कर्ता सोमदेवसूरिसे पीछे की जान पड़ती है; क्योंकि यशस्तिलकके उपासकाध्ययन का एक पद्य रत्नमालामें कुछ तोड़-मरोड़कर रक्खा गया मालूम होता है । यथाः
सर्व एव हिजैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ॥ --- यशस्तिलक चम्पू सर्वमेवविधिजैनः प्रमाणं लौकिकः सतां । यत्र न व्रतहानिः स्यात्सम्यक्त्वस्य च खंडनं ॥
--रत्नमाला ६५ यशस्तिलक चम्पूका रचनाकाल शकसंवत् ८८१ ( वि० सं० १०१६ ) है, अतः रत्नमालाकी रचना इसके पीछेकी जान पड़ती है । रत्नमाला में शिथिलाचारपोषक वर्णन भी पाया जाता है, जिसका एक श्लोक नमूने के तौर पर दिया जाता है:कलौ काले वनेवासो वर्ज्यते मुनिसत्तमैः । स्थीयते च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः ||२२|| इस श्लोक में बताया है कि इस कलिकालमें मुनियों को बनमें न रहना चाहिये । श्रेष्ठ मुनियोंने इसको वर्जित
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[चैत्र, वीर-निवाण सं० २४६५
बतलाया है। इस समय उन्हें जैनमन्दिरोंमें, विशेषकर ग्रामादिकों में ठहरना चाहिये। इससे पाठक जान सकते हैं कि यह उस समयकी रचना है जबकि साधु- सम्प्रदाय में शिथिलता श्रागई थी और चैत्यवास तथा ग्रामवासकी प्रवृत्ति जोर पकड़ती जाती थी । भगवती श्राराधना में वनवासके निषेधादिका ऐसा कोई विधान नहीं पाया जाता है । इसके सिवाय, 'भगवती आराधना' में शिवकोटिने अपने जिन तीन गुरुश्रोंके नाम दिये हैं उनमें से 'रत्नमाला' के कर्त्ताने एक का भी उल्लेख नहीं किया, जब रत्नमाला में सिर्फ़ सिद्धसेन भट्टारक और समन्तभद्रका ही स्मरण किया गया है। इससे स्पष्ट जाना जाता है कि 'रनमाला' और 'आराधना' दोनों ग्रंथ एक ही विद्वानकी कृति नहीं है और न हो सकते हैं । भगवती श्राराधनाके सिवाय, शिवकोटिकी कोई दूसरी रचना अब तक उपलब्ध ही नहीं हुई है। ऐसी हालत में पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि उक्त पं० जिनदास शास्त्रीने श्राराधना ग्रंथके कर्ता शिवकोटिको जो रत्न - मालाका कर्त्ता लिखा है वह कितना अधिक निराधार, भ्रमपूर्ण तथा श्रप्रामाणिक है ।
ऊपरके इस समस्त विवेचन परसे यह बात स्पष्ट है कि 'भगवती श्राराधना' के कर्त्ता शिवकोटि या शिवार्य श्राचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वाति, समन्तभद्र तथा संभवतः कार्तिकेयके बाद हुए हैं, और सर्वार्थसिद्धिप्रणेता पूज्यपादसे पहले हो गये हैं- उनका अस्तित्वकाल स्वामी समन्तभद्र और पूज्यपाद दोनोंके मध्यवर्ती है। साथ ही, यह भी स्पष्ट कि 'रत्नमाला' के कर्ता शिवकोटि भगवती श्राराधनाके रचयिता से भिन्न हैं— दोनों एक व्यक्ति नहीं हो सकते। रही भगवती श्राराधनाके कर्ताकी समन्तभद्रके साथ शिष्य सम्बन्धकी बात, वह अभी सन्दिग्ध है- विशेष प्रमाणोंकी उपलब्धिके बिना उसके सम्बन्धमें निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता । श्राशा है विद्वान् लोग इस विषय में विशेष प्रमाणोंको खोज निकालनेका प्रयत्न करेंगे ।
मुझे अबतक के अनुसन्धान- द्वारा जो कुछ मालूम होसका है वह विद्वानोंके सामने विचारार्थ प्रस्तुत है ।
वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० ७-१-१६३६