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. . . . . . . . . . . अनेकान्त ..........
[वैशाख, वीर-निर्वाण सं०२४६५
समन्तभद्रका स्मरण करते हुए, उन्हे "देवागमेन येनाऽत्र व्यको देवागमः कृतः" विशेषणके साथ उल्लेखित किया है।
त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाऽक्षय्यसुखावहः । अर्थिने भव्यसार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः।।
-पार्श्वनाथचरिते, वादिराजसूरिः वे ही योगीन्द्र समन्तभद्र सच्चे त्यागी (दाता) हुए हैं, जिन्होंने भव्यसमूहरूली सुखार्थीको अक्षय सुखका कारण धर्मरत्नोंका पिटारा-रत्नकरण्डक' नामका धर्मशास्त्र-दान किया है।
प्रमाण-नय-
निति-वस्तुतत्त्वमबाधितम् । जीयात्समन्तभद्रस्य स्तोत्रं युक्त्यनुशासनम् ।।
-युक्त्यनुशासनटीकायां, विद्यानन्दः श्रीसमन्तभद्रका 'युक्त्यनुशासन' नामका स्तोत्र जयवन्त हो, जो प्रमाण और नयके द्वारा वस्तुतत्त्व के निर्णयको लिये हुए है और अबाधित है-जिसके निर्णयमें प्रतिवादी आदि द्वारा कोई बाधा नहीं दी जा सकती।
यस्य च सद्गुणाधारा कृतिरेषा सुपद्मिनी । जिनशतकनामेति योगिनामपि दुष्करा ।। स्तुतिविद्या समाश्रित्य कस्य न क्रमते मतिः। तद्वृत्तिं येन जाड्ये तु कुरुते वसुनन्द्यपि ।।
-जिनशतकटीकायां, नरसिंहभट्टः स्वामी समन्तभद्रकी 'जिनशतक' (स्तुतिविद्या) नामकी रचना, जो कि योगियोंके लिये भी दुष्कर है, सदगुणोंकी अाधारभत सुन्दर कमलिनी के समान हैं-उसके रचना-कौशल, रूप-सौन्दर्य, सौरभ-माधुर्य और भाववैचित्र्यको देखते तथा अनुभव करते ही बनता है। उस स्तुतिविद्याका भले प्रकार श्राश्रय पाकर किसकी बुद्धि
को प्राप्त नहीं होती ? जडबुद्धि होते हुए भी वसुनन्दी स्तुतिविद्याके समाश्रयण के प्रतापसे उसकी वृत्ति (टीका) करने में समर्थ होता है।
यो निःशेषजिनोक्तधर्मविषयः सामन्तभद्रैः कृतः सूक्तार्थेरमलैः स्तवोऽयमसमः स्वल्पैः प्रसनैः पदैः। स्थेयांश्चन्द्रदिवाकरावधि बुधप्रहादचेतस्यलम् ॥
-स्वयम्भूस्तवटीकायां, प्रभाचन्द्रः श्रीसमन्तभद्रका 'स्वयम्भस्तोत्र', जो कि सूत्ररूपमें अर्थका प्रतिपादन करनेवाले, निर्दोष, स्वल्प एवं प्रसन्न (प्रसादगुणविशिष्ट ) पदोंके द्वारा रचा गया है और सम्पूर्ण जिनोक्त धर्मको अपना विषय किये हुए है, एक अद्वितीय स्तोत्र है, वह बुधजनों के प्रसन्न नित्तमें सूर्य-चन्द्रमाको स्थिति-पर्यन्त स्थित रहे।
तत्त्वार्थसूत्र व्याख्यान-गन्धहस्तिप्रवर्तकः ।
स्वामी समन्तभद्रोऽभद्देवागमनिदेशकः ।। स्थामी समन्तभद्र तत्त्वार्थसूत्रके 'गन्धहस्ति' नामक व्याख्यानके प्रवर्तक (विधायक ) हए हैं और साथ ही देवागमके-'देवागम' नामक ग्रन्थके अथवा जिनेन्द्रदेव प्रणीत श्रागमके-निर्देशक (प्ररूपक) भी थे।
यहाँ पर 'श्रीगौतमायैः पद दिया हुआ है, जिसका कारण गौतम स्वामीके स्तोत्रको भी शुरूमें साथ लेकर दो तीन स्तोत्रोंकी एक साथ टीका करना है।