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अनेकान्त
[वैशाख, वीर-निर्वाण सं० २४६५.
पहला ग्रंथ है 'जैनेन्द्र' नामक न्यास (व्याकरण), जिसे भरक्षणार्थ विरचिसि जसमें तालिददं विश्वविद्याभरणं । संपूर्ण दुधजनोंसे स्तुत लिखा है। दूसरा पाणिनीय व्याक- भव्यालियाराधितपदकमलं पूज्यपादं व्रतीन्द्रम् ।' रणके ऊपर लिखा हुआ 'शब्दावतार' नामका न्यास . पाणिनीयकी काशिका बत्तिपर 'जिनेन्द्रबुद्धि'का एक है तीसरा मानव-समाजके लिये हितरूप 'वैद्यशास्त्र' न्यास है। पं० नाथरामजी प्रेमीने अपने उक्त लेखमें
और चौथा है तत्त्यार्थसूत्रकी टीका 'सर्वार्थसिद्धि'। प्रकट किया है कि 'इस न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि' के यह टीका पहले तीन ग्रन्थोंके निर्माणके बाद लिखी गई नामके साथ 'बोधिसत्वदेशीयाचार्य' नामकी बौद्ध पदवी है, ऐसी स्पष्ट सूचना भी इस शिलालेखमें की गई है। लगी हुई है, इससे यह ग्रंथ बौद्ध भिक्षुका बनाया हुआ साथ ही, पूज्यपाद स्वामीके विषयमें लिखा है कि वे है। आश्चर्य नहीं जो वृत्त-विलास कविको पूज्यपादके राजासे x वंदनीय थे, स्वपरहितकारी वचनों (ग्रंथों) 'जिनेन्द्रबुद्धि' इस नाम साम्यके कारण भ्रम हुअा हो के प्रणेता थे और दर्शन-शान-चारित्रसे परिपूर्ण थे। और इसीसे उसने उसे पूज्यपादका समझकर उल्लेख कर
इस अवतरणसे पूज्यपादके 'शब्दावतार' नामक दिया हो।' परन्तु ऊपरके शिलालेखमें न्यासका स्पष्ट एक और अनुपलब्ध ग्रंथका पता चलता है, जो पाणि- नाम शब्दावतार दिया है और उसे काशिकावृत्तिका नहीं नीय व्याकरणका न्यास है और 'जैनेन्द्र' व्याकरणके बल्कि पाणिनीयका न्यास बतलाया है, ऐसी हालतमें बाद लिखा गया है। विक्रमकी १२ वीं शताब्दीके जब तक यह सिद्ध न हो कि काशिकापर लिखे हुए. विद्वान कवि वृत्तविलासने भी अपने 'धर्मपरी' नामक न्यासका नाम 'शब्दावतार' है और उसके कर्त्ताके नामकन्नडी ग्रन्थमें, जो कि अमितगतिकी 'धर्मपरीक्षा'को के साथ यदि उक्त बौद्ध विशेषण लगा हुआ है तो वह लेकर लिखा गया है, पाणिनीय और व्याकरण पर किसीकी बादकी कृति नहीं है । तब तक धर्म-परीक्षाके पम्पपादके एक टीकाग्रन्थका उल्लेख किया है जो उक्त कर्ता वृत्तविलासको भ्रमका होना नहीं कहा जा सकता; 'शब्दावतार' नामक न्यास ही जान पड़ता है। साथ ही क्योंकि पूज्यपादस्वामी गंगराजा दुर्विनीतके शिक्षागुरु पज्यपादके द्वारा भरक्षणार्थ (लोकोपकारके लिये) यंत्र- ( Precoptor ) थे, जिसका राज्यकाल ई० सन् मंत्रादि-विषयक शास्त्रोंके रचे जानेको भी सूचित किया ४८२ से ५२२ तक पाया जाता है और उन्हें हेब्बुर है-जिसके 'श्रादि' शब्दसे वैद्यशास्त्रका भी सहज ही में आदिके अनेक शिलालेखों ( ताम्रपत्रादिकों) में ग्रहण होसकता है-और पूज्यपादको 'विश्वविद्याभरण' 'शब्दावतार'के कर्तारूपसे दुर्विनीत राजाका गुरु उल्लेजैसे महत्वपूर्ण विशेषणोंके साथ स्मरण किया है।
देहलीके नये मन्दिर में 'काशिका-न्यास'की जो यथाः
हस्तलिखित प्रति है उसमें उसके कर्ता 'जैनेन्द्रबुद्धि' 'भरदि जैनेन्द्रं भासुरं एनल भोरेदं पाणिगीयके टीकुंब के नामके साथ 'बोधिसत्वदेशीयाचार्य' नामकी कोई रेदं तत्वार्थमं टिप्पणादिम् भारपिदं यंत्रमंत्रादिशास्त्रोक्त
उपाधि लगी हुई नहीं है-ग्रन्थकी संधियोंमें "इत्याकरमं ।
चार्य स्थविरजिनेन्द्रबुद्धय परचितायां न्यास- (तथा x यह गंगराजा 'दूर्विनीत' जान पड़ता है। 'काशिकाविवरणन्यास' ) पंचिकार्या" इत्यादि रूपसे जिसके पूज्यपाद शिक्षागुरु थे।
उल्लेख पाया जाता है।