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वर्ष २, किरण
भीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ
mesमा
खित किया
सिद्धिसोपान' में यह अपने विकास के साथ प्रकाशित इटोपदेश मादि दूसरे अन्य हुआ है। इन सब ग्रंथोंके अतिरिक्त पूज्यपादने और कितने हाँ, लुतप्राय अन्यों में बंद और काम्ययाव-विषयक वथा किन किन ग्रंथोंकी रचना की। इसका अनुमान प्रापके दो ग्रंथोंका पता और भी अवणवेल्गालशिलालगाना कठिन है-इटोपदेश' और 'सिद्धभकि' । जैसे लेखन. ४. के निम्न वास्यसे चलता है:प्रकरण ग्रंथ तो शिलालेखों आदिमें स्थान पाये बिना ही “जैनेन्द्र निजराब्दभागमतुलं सर्वार्थसिदिः परा. अपने अस्तित्व एवं महत्वको स्वतः ख्यापित कर रहे हैं। सिद्धान्ते निपुगत्वमुद्धकविता जैनाभिषेक सका। 'पोपदेश' ५१ पद्योंका एक छोटासा यथा नाम तथा छन्दः सूक्ष्मषियं समाधिशतक स्वास्वं यदी विदागुग्णसे युक्त सुंदर माध्यात्मिक ग्रंथ है और वह पं० माख्यातीह सपज्यपादमुनिपः पूज्यो मुनीना गा " प्राशावरजीकी संस्कवटीका सहित माणिकचंद्र ग्रंथमाला- इस वास्यमे, उचे दर्जकी कुब रचनामोका उख में प्रकाशित भी हो चुका है। सिदिभक्ति' पद्योंका करते हुए, बड़े ही अच्छे देंगसे यह प्रतिपादित किया
हैकि 'जिनका "जैनेन्द्र" शब्द शास्त्र में अपने अतुलित एक बड़ा ही महत्वपूर्ण 'गम्भीरार्थक' प्रकरण है। इसमें सूत्ररूपसे सिद्धिका, सिद्धिके मार्गका सिद्धिको प्राप्त
भागको, 'सर्वार्थसिद्धि' (तस्वार्यटीका) सिद्धांतमें परम होने वाले प्रात्माका आत्मविषयक जैन सिद्धांतका,
हम निपुणताको, 'जैनाभिषेक' ऊँचे दर्जेकी कविताको, सिद्धि के कमका, सिद्धिको प्राप्त हुए सिद्धियोंका और
'छन्दःशास्त्र' बुद्धिकी सूक्ष्मता (रचनाचातुर्य) को और सिद्धियोंके सुखादिका अच्छा स्वरूप बतलाया गया है।
'समाधिशतक' जिनकी स्वास्मस्थिति (स्थितप्राता) को
संसारमें विद्वानों पर प्रगट करता है ये 'पूज्यपाद मुनीन्द्र देखो 'कुर्गइन्स्किपशन्स' भू० ३, 'मैसूर ऐएर मुनियों के गणोंसे पूजनीय है । कुर्ग' जिल्द १, पृ०३७३, 'कर्णाटकभाषाभूषणम्' ० 'एकान्सखण्डन'प्रथमें लक्ष्मीधरने, पूज्यपाद स्वामी पृ० १२, 'हिस्टरी आफ कनडोज लिटरेचर' पृ० २५ का पड्दर्शनरहस्य-संवेदन-सम्पादित-निस्सीमपापिरत्यऔर 'कर्णाटककविपरिते'।
मण्डिताः' विशेषणके साथ स्मरण करते हुए, उनके सिद्धभक्तिके साथ श्रुतभक्ति, चरित्रमति, विषयमें एक खास प्रसिद्धिका उल्लेख किया है-अर्थात् बोगभक्ति, प्राचार्यभक्ति, निर्वाणमकि, तथा नन्दी- यह प्रकट किया है कि उन्होंने निस्यादि सर्वथा एकान्त श्वरभक्ति, नामके संस्कृत प्रकरण भी पूज्यपादके पक्षकी सिद्धिनें प्रयुक्त हुए साधनोंको दूषित करनेके लिये प्रसिद्ध है । क्रियाकलापके टीकाकार प्रभाचन्द्रने उन 'विक्र' हेत्वाभास बतलाया है। जब कि सिद्धसेनाअपनी सिद्धभक्ति टीकामें "संस्कृताः सर्व भक्तयः चार्यने प्रसिद्ध' हेत्वाभास प्रतिपादन करनेमें ही संतोष पूज्यपादस्वामिहतः प्रान्तास्तु कुंदकुंदाचार्यकता" धारण किया है और स्वामी समन्तमहने 'असिख-विम्ब' इस वाक्यके द्वारा उन्हें पूज्यपादकत बतलाया है। प्रस्तावना-लेखक-दारा लिखीईया ये सब भक्ति पाठ देरामकि भादिमें मुद्रित होकर पृष्ठकी सिदिसोपान' पुस्तक पीरसेवामन्दिर,सरसावाप्रकाशित हो चुके हैं।
से बिना मूल्य मिलती है।