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ज्ञान-किरण
( लेखक - श्री० 'भगवत्' जैन )
एक-दूसरेका शत्रु बन गया ! भ्रातृत्व तककी हत्या करनेके लिए प्रस्तुत ! इसका सबब थीएक सुन्दरी ! लेकिन जब ज्ञान-किरणका उदय हुआ, तब .....?
तब दोनों तरुण- साधुके रूपमें जगहितकी भावनाका प्रस्तार कर रहे थे ! बाँछनीय, पवित्र ज्ञान-किरण !!!
[१]
इससे पहिले उन्होंने और कुछ देखा -पहिचाना ही नहीं ! लम्बे-लम्बे दिन आते, रातें आतीं और चली जाती ! सप्ताह, मास, वर्ष बनकर बहुत-सा समय निकल गया ! लेकिन उन्होंने उसकी ओर देखा तक नहीं ! देखते-विचारते तो तब, जब अवकाश होता ! दैनिक कार्यक्रम ही इतना सीमित, इतना व्यवस्थित और इतना नियंत्रित था कि विद्या मन्दिर के अतिरिक्त भी पृथ्वी पर कुछ और है, इस तकका उन्हें पता न लगा ! अध्यापककी गम्भीर - मुद्रा और पाठ्यपुस्तकें बस, इन्हीं दो तक उनका ध्यान, उनकी दृष्टि सीमित रही !
कितना परिवर्तन हो चुका था - अव ! जब महाराजने साक्षर बनाने के लिए सौंपा था, तब दोनों अबोध बालकके रूपमें थे ! लेकिन भाज... ? – वे दोनों स्मर-स्वरूप, नव-यौवन, महा विद्या विभूषित पण्डितराज बनकर महाराजके सामने जा रहे हैं !
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अध्यापक सागरघोषके हर्षोन्मत्त-हृदयकी क्या आज कल्पना की जा सकती है..? – उन्हें एक अवर्णनीय-सुखका अनुभव हो रहा है ! वह
आज अपने कठिन परिश्रमका दरबार में प्रदर्शन कराएँगे ! आजका दिन उनके लिए सफलताका दिन है !
सिद्धार्थ नगर के महाराज क्षेमंकरके ये दो पुत्र हैं - एक देश - भूषण दूसरे कुल भूषण ! [ २ ] 'महाराजकी जय हो !'
एक हर्ष-भरे जय घोपके साथ दरबार में कुछ व्यक्तियोंने प्रवेश किया !
महाराजने देखा — उन्हींके श्रात्मज तो हैं ! खुशीका पारावार नहीं ! चिरपिपासित - उत्कंठा नर्त्तन कर उठी !
क्या इससे भी अधिक कोई हर्षका अवसर होगा ? महाराज अपनी पद-मर्यादा भूल गए, वात्सल्यने उन्हें प्रोत-प्रोत कर दिया ! सिंहासन पर वे स्थिर न रह सके ! उतरे ! स-भक्ति दोनोंने चरण स्पर्श-पूर्वक प्रणाम् किया ! महाराजने किया प्रगाढ़ - प्रेमालिंगन ! - और सब यथा स्थान बैठे ! अब महाराज, सागरघोषकी तरफ मुखातिब हुए एक कृतज्ञता भरी नजरसे उनकी ओर देखा, कुछ मुस्कराये भी उन्होंने करबद्ध नमस्कार किया !
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इसके बाद – बातें प्रारम्भ हुई ! पहिले राज