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अनेकान्त
[ वैशाख, वीर-निर्वाण सं०२४६५
उसी प्रकार अन्य भावेन्द्रियाँ भी द्रव्येन्द्रियोंके बिना इस कथनसे यह स्पष्ट है कि लन्ध्यपर्यातक जीवमें उपयोगरूपमें न पावें, परंतु उनका क्षयोपशम भी न नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमके लिये किसी प्रयलहो यह कैसे हो सकता है ? जब कि सावमन भी वहाँ पर विशेषकी आवश्यकता नहीं होती, यह क्षयोपशम उसके इयोपशमरूपसे विद्यमान है । परंतु जैन-सिद्धांतमें स्वयं होता है । इसलिये वहाँ द्रव्यमनके बिनामी भावएकेन्द्रिय जीवोंके रसना श्रादि भावेन्द्रियोंका लब्धिरूपमें मन हो सकता है, तथा भावमनमें मी उपयोगरूप भावप्रभाव स्वीकार किया है। तब भावमनका भी लन्धिरूपसे मनके बिना लब्धिरूप भावमन हो सकता है। अन्य अमाव स्वीकार करना चाहिये । ऐसी हालतमें श्रुतंशन इन्द्रियों के विषय में ऐसा नहीं है। इसलिये भावेद्रिय और सय जीवोंके होता है, यह सिद्धांत बाधित हो जाता है। भावममकी तुलना नहीं की जा सकती है ।
समाधान-किसी भी द्रव्येन्द्रिय या भावेन्द्रियके लिये शंका-विग्रह-गतिमें मनुष्य-भवोन्मुख प्राणीके जब उसी जाति के क्षयोपशमकी आवश्यकता हुआ करती है। पाँचों इन्द्रियाँ क्षयोपशमरूपमें विद्यमान रहती हैं फिर - बिनायोपशमके कभी भी द्रव्येन्द्रिय या भावेन्द्रियकी सं- भी उसका पंचेन्द्रियत्व कायम रहता है। इसी तरह भावना नहीं हुआ करती । इस नियमके अनुसार भावमन- जिन असंशी जीवोका मन केवल क्षयोपशम रूपमें ही के लिए भी नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमकी आवश्यकता विद्यमान रहता है, उनका समनस्कत्व ही क्यों छीना होती है,यह पहिले कहाजाचुका है। अब देखना यह है कि, जाय ! यदि विग्रहगतिमें जीव संज्ञी कहलाता है, तो नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमके समान ही अन्य इन्द्रियोंका दूसरे दो इन्द्रियादिक जीव भी संशी कहलाने चाहिये; क्षयोपशम होता है अथवा कुछ भिन्नता है इसके लिये क्योंकि भावमनस्त्व दोनों जगह बराबर है । अगर वह गोम्मटसार-जीव-काण्डकी निम्न गाथा पर भी विचार संज्ञी हैन असंही तो दो इन्द्रियादिक जीव भी संशित्वकरना उचित है।
असंशित्व दोनोंसे रहित होने चाहिये। सुहमणिगोदभपज्जत्तयस्य जादस्स पढमसमयम्हि समाधान-विग्रहगतिमें मनुष्य-भवोन्मुख प्राणीके फासिदियमदिपुव्वं सुदणाणं लछि भक्खरयं ॥ पांचों इन्द्रियाँ क्षयोपशमरूपमें विद्यमान रहती हैं। यह
अर्थात्-सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्यातक जीवके क्षयोपशम ही द्रव्येन्द्रियकी रचना कराने में कारण होता उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें स्पर्शन-इन्द्रियजन्य मति- है। भावेन्द्रियाँ,द्रव्येन्द्रियोंकी रचना नियमसे कराती हैं। मानपूर्वक लब्ध्यवररूप श्रुतशान होता है । 'लन्धि' भाषेन्द्रियाँ हों और द्रव्येन्द्रियकी रचना न हो यह संभव भुतशानावरणके क्षयोपशमको कहा है, और 'अक्षर' नहीं हो सकता । इतना होने पर भी यह कोई नियम अविनश्वरको कहते हैं । अर्थात्-इतना शान हमेशा नहीं कि उसी समय रचना हो। समय-भेद हो सकता है। निरावरण होता है, इसलिये इस ज्ञानको लन्ध्यक्षर कहते विग्रहगतिमें पंचेन्द्रियत्वकी उपचारसे कल्पना की गई है है। इस क्षयोपशमका कभी विनाश नहीं होता है, कमसे परन्तु भावेन्द्रियकी तरह भावमन नियमसे द्रव्यमनकी कम इतना क्षयोपशम तो सब जीवोंके होता ही है। लगभ्य- रचना नहीं कराता, इसलिये इसकी उपचारसेभी कल्पना चररूप भूतशान और नोहन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशम नहीं करना चाहिये। का एक ही अर्थ है।
विग्रहगतिमें मनुष्य-भवोन्मुख जीवके क्षयोपशमरूप