________________
जैनधर्म और अनेकान्त
[ले-श्री पं० दरबारीलालजी 'सत्यमा']
धर्म और दर्शन ये जुदे-जुदे विषय हैं; परन्तु प्रागैतिहा- एकान्तदृष्टि एक बड़ा भारी पाप है। जैनधर्ममें इसे 7 सिक कालसे ही इन दोनोंका आश्चर्यजनक सम्बन्ध मिथ्यात्व कहते हैं । मिथ्यात्व पाँच पापोंसे भी यहा पाप चला आता है । प्रत्येक धर्म अपना एक दर्शन रखता माना गया है। क्योंकि वे पाप, पाप के रूपमें ही दुनियारहा है । उस दर्शनका प्रभाव उस धर्म पर आशातीत को सताते हैं, इसलिये उनका इलाज कुछ सरलतासे रूपमें पड़ा है। दर्शनको देखकर उस धर्मको समझने में होता है परन्तु मिथ्यात्वरूपी पाप तो धर्मका जामा पहिन मुभीता हुश्रा हैइतना ही नहीं, किन्तु उस समय दर्शन- कर समाजका नाश करता है। अन्य पाप अगर म्यान को समझे बिना उस धर्मका समझना अति कठिन था। है तो मिथ्यात्वरूपी पाप गोमुख-व्या है । यह कर भी
जैन-धर्मका भी दर्शन और उसमें एक ऐसी विशे- हैऔर पहिचानने में कठिन भी है। पता है जो जैनधर्मको बहुत ऊँचा बना देती है। जिसके हदयमें सर्वथा एकान्तबाद बस गया उसके प्रात्मा क्या है? परलोक क्या है? विश्व क्या है? हृदयमें उदारता, विश्वप्रेम आदि जो धर्मके मूल-तत्व है
श्वर है कि नहीं? आदि समस्याओंको सुलझानेकी वे प्रवेश नहीं पा सकते, न वह सत्यकी प्राप्ति कर सकता कोशिश सभी दर्शनोंने की है और जैन-दर्शनने भी है। इस प्रकार वह चारित्र-हीन भी होता है और शानइस विषयमें दुनियाको बहुत कुछ दिया है, अधिकारके हीन भी होता है। यह दुराग्रही होकर अहंकारकी और साथ दिया है और अपने समयके अनुसार वैशानिक अन्धविश्वासकी पूजा करने लगता है । इस तरह वह ष्टिको काममें लाकर दिया है परन्तु जैन-दर्शनकी इतनी जगत्को भी दुःखी वथा प्रशान्त करता है और स्वयं ही विशेषता बतलाना विशेषता शब्दके मूल्यको कम कर भी बनता है। देना है। जैन-दर्शनने जो दार्शनिक विचार दुनियाके एकान्तवादकी इस भयंकरताको ना करने के लिये सामने रखे वे गम्भीर और तथ्यपूर्ण है यह प्रश्न ही जैनदर्शनने बहुत कार्य किया है। उसका नयवाद और जुदा है । इस परीक्षामें अगर जैन-दर्शन अधिकसे सप्तभंगी उसकी बड़ी से बड़ी विशेषता है । इसके द्वारा अधिक नम्बरोंमें पास भी हो जाय तोमी यह उसकी नित्यवाद, अनित्यवाद, ईनबाद, अद्वैतवाद, धादिक चड़ी विशेषता नहीं कही जा सकती। उसकी बड़ी दार्शनिक विरोधोको बड़ी खत्रीके साशान्त करने की विशेषता है 'अनेकान्त' जो कंवल दार्शिनिक सत्य ही कोशिशकी गई है। इतना ही नहीं किन्तु यह अनेकान्तनहीं है, बल्कि धार्मिक सत्य भी है। इस अनेकान्तका बाद भी कहीं एकान्ववाद न बन जाये इसके लिये सतदूसरा नाम स्याद्वाद है । जैन-दर्शनमें इसका स्थान कंवा रक्ली गई है और कहा गया है कि:इतना महत्वपूर्ण है कि जैन-दर्शनको स्याद्वाद दर्शन या अनेकान्त दर्शन भी कहते हैं।
अनेकान्तोप्यऽनेकान्तः. प्रमाल नव साधनः ।