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अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाह सं०२४६५
आसुसारे मरखो लोरिपार पीविदासाए । इन चारों से प्राकृत टीका अधिक प्राचीन है और गादीहि वा अमुको पश्चिमसल्लेहरामकासी । टिप्पणादि उसके बाद के बने हुए मालम होते हैं। ये
-गाथा नं० २०७६ से २०८३ .सब टीका-टिप्पणा १३वीं शताब्दीमें पं० प्राथाघरजीके इन गाथाओंमें श्रावकके बारह व्रतोंका विधान करते सामने मौजूद थे । परन्तु खेद है कि आज कहीं भी हुए निचर्यने प्राचार्य समन्तभद्रकी तरह गुणवतोंमें उनका अस्तित्व सुनने में नहीं पाता ! भोगोषमोगपरिमाण व्रतको न लेकर देशावकाशिकको
रचनाकाल ग्रहण किया है और शिक्षाबतोमें देशावकाशिकको न यह ग्रन्थ प्राचार्य शिवकोटि या शिवार्यका लेकर मोगापभोगपरिमाण व्रतका विधान किया है । बनाया हुआ है। ग्रन्थमें 'सिवजेण' पदके द्वारा ग्रंथपरन्तु सल्लेखनाका कथन समन्तभद्रकी तरह व्रतोंसे कारका नाम 'शिवार्य' अथवा संक्षिसरूपसे 'शिव' नामके अलग ही किया है, जब कि प्राचार्य कुन्दकुन्दने सल्ले- प्राचार्य सूचित किया है, और श्रीजिनसेनाचार्यादिने खनाको चौथा शिक्षाप्रत बतलाया है। इससे मालूम उन्हें 'शिवकोटिं' प्रकट किया है। ये शिवकोटि अथवा होता है कि ग्रन्थकारने उमास्वातिप्रणीत तत्त्वार्थसूत्रके शिवार्य कब हुए हैं, किस संवत्में उन्होंने इस ग्रन्थकी 'दिग्देशानर्थदण्ड' इत्यादि सूत्र (७-२०) को रचनाकी और उनका क्या विशेष परिचय है ? इत्यादि मान्यताको बहुत कुछ अपनाया है।
बातोंके जाननेका इस समय कोई साधन नहीं है। क्योंकि इस ग्रन्थ पर प्राकृत और संस्कृतभाषामें कई न तो ग्रन्थकारने ही इन बातोंकी सूचक कोई प्रशस्ति टीका-टिप्पण लिखे गये हैं, जिनमेंसे चार टीकात्रों- दी है और न किसी दूसरे प्राचार्यने ही उनके विषयका-विजयोदया, मूलाराधनादर्पण, आराधनापंजिका का ऐसा कोई उल्लेख किया है। हाँ, ग्रंथके अन्तमें
और भावार्थदीपिका नामकी टीकाओंका-उल्लेख तो निम्न दो गाथाएँ ज़रूर पाई जाती है:पं. नाथूरामजी प्रेमीने 'भगवती आराधना और उसकी अज्जजिणणंदिगणिसव्वगुत्तगणिप्रज्जमित्तणंदीणं । टीकाएँ' शीर्षक लेखमें किया है। ये सभी टीकाएँ अवगमिय पादमूले सम्म सुत्तं च भत्थं च ॥ उपलब्ध हैं और उनमेंसे शुरूकी दो टीकाएँ तो, पुवायरियणिषद्धा उपजीवित्ता इमा ससत्तीए। अमितगत्याचार्य-कृत पद्यानुवाद सहित, मूल ग्रन्थकी पाराधणा सिवजेण पालिदलभोइला रहदा ॥ नवीन हिंदी टीकाके साथ 'देवेन्द्रकीर्तिग्रन्थमाला' में
-गाथा नं० २१६५, २१६६ प्रकाशित भी हो चुकी है,शेष दो टीकाएँ अप्रकाशित हैं। इन दोनों गाथानोंमें बतलाया है कि 'आर्य इनके सिवाय, एक प्राकृतटीका, चन्द्रनन्दी और जय- जिननंदिगणी, आर्य सर्वगुतगणी और धार्य मित्रनंदिनन्दीकत दो टिप्पणों तथा किसी अज्ञातनाम प्राचार्यकृत गणीके चरणोंके निकट भले प्रकार सूत्र और अर्थको दूसरे पद्यानुवादके नामादिकका उल्लेख भी पं० पाया- समझ करके और पूर्वाचार्योंके द्वारा निबद हुई मारापरजीको 'मूलाराधनादर्पण' नामक टीकामें पाया घनामोंके कथनका उपयोग करके पाशितलमोगीजाता है।
करतल पर लेकर भोजन करने वाले-शिवार्यने यह • देखो, अनेकान्त वर्ष १, अंक ३, ४। 'भाराधना'मन्य अपनी शकिके अनुसार रचा।