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वर्ष २, किरा
जैनधर्म और अनेकान्त
को भी चैन समाज तैयार है जो 'जैनसमाजके बाहर, सनसे उतार सका, मेर-सवले देशमान्य पदास्पद मन्यरहकर अनेकान्तका म्यावहारिक उपयोग कर रहे को फेंक सका, विज्ञानकी कसौटी पर जो न उतरा उसका परन्तु दुर्माग्वषय जैनसमाज यह नहीं चाहता कि कोई 'ऑपरेशन' कर दिया, तभी यह दवा के साथ का उसका बाल अनेकान्सका व्यावहारिक उपयोग करे, सका कि मैं वैशनिक हूँ । परन्तु भाका जैन-धर्मउसको कुछ ऐसा रूप दे जिससे जड़ समाजमें कुछ अर्थात् जैनधर्मके नाम पर समझा जानेवाला यह रूप चैतन्यकी उद्भूति हो, दुनियाका कुछ प्राकर्षण हो, जो साधारण लोगोंकी अन्ध भवारूपी गुफामें पड़ा हैउसको कुछ मिले भी। जैन समाजको आज सिर्फ नामकी क्या इस प्रकार वैज्ञानिकताका परिचय दे सकता है! पूजा करना है, अर्थकी नहीं।
आज तो जैनसमाजका शिक्षित और त्यागीवर्ग भी । परन्तु जैन समाजसे मैं विनीत किन्तु स्पष्ट शब्दोंमें वैज्ञानिक जैनधर्मके पक्षमें खड़ा नहीं हो पाता । कह देना चाहता हूँ कि यह रुख जैनधर्मका रुख नहीं शिक्षितवर्गकी शक्ति मी जनताको सुपथ पर लाने में नहीं है। जैनधर्म कवित्वकी अपेक्षा विज्ञानकी नींव पर अधिक किंतु रिझाने में ना हो रही है । उसे वैज्ञानिक जैनधर्मके खड़ा है। कवित्वमें भावुकता रहती है अवश्य, परन्तु मार्ग पर चलानेकी बात तो दूर, परन्तु सुनानेमें और उसमें अन्धश्रद्धा नहीं होती और विज्ञानमें तो अन्धभदा- सुनने में मी उसका हृदय प्रकम्पित हो उठता है। अहा ! का नाम ही पाप समझा जाता है । विशानका तो प्राण कहाँ जैन धर्म, कहाँ उसकी वैशनिकता, अनेकान्तता ही विचारकता, निष्पक्षता है । यदि जैनसमाज जैन और कहाँ यह कायरता, अन्धभदा !! दोनोंमें जमीन धर्मको वैज्ञानिक धर्म कहना चाहता है जैसा कि वह प्रास्मानसे भी अधिक अन्तर है। है तो उसे स्वतन्त्र विचारकता, योग्य परिवर्तनशीलता, याद रखिये ! इस वैशानिक निश्पक्षताके बिना सुधारकताका स्वागत करना चाहिये । धर्मका मूल- अनेकान्त पास भी नहीं फटक सकता, और अनेकान्तद्रव्योंकी योजनोंकी वर्षोंकी और अविभाग प्रतिच्छेदोंकी के बिना जैन-धर्मकी उपासना करना प्राणहीन शरीरका गणनामें नहीं है किन्तु वह जनहितमें है। विश्वके उपयोग करना है । जैन-धर्मकीविजय-जयन्ती उड़ाने. कल्याणके लिये, सत्यकी पजाके लिये किसी भी की बात तो दूर रहे, परन्तु उससे जैनसमाज अगर मान्यताका बलिदान किया जा सकता है। विशान कुछ लाभ उठाना चाहता हो, तो उसे सस्य और
आज जो विद्युद्वेगसे दौड़ रहा है और विद्युत्के समान कल्याणकारी प्रत्येक विचार और प्रत्येक प्राचारको हो चमक रहा है उसका कारण यही है कि उसमें अपनाकर, उसका समन्वय कर अनेकान्तकी म्यायअहंकार नहीं है। सत्यकी वेदी पर वह प्राचीनसे हारिक उपयोगिताका परिचय देना चाहिये । जहाँ प्राचीन और प्यारेसे प्यारे सिद्धान्तका-विचारका अनकान्तकी यह म्यावहारिक उपयोगिता है यहां जैनबलिदान कर देता है । कोई धर्म अगर वैज्ञानिक है तो धर्म है । इसके बिना जैनधर्मका नाम तो रस्सा जा उसमें भी यही विशेषता होनी चाहिये।
सकता है। परन्तु जैनधर्म नहीं रक्खा जा'मकता । एक दिन जैन धर्ममें यह विशेषता थी, इसीलिये यह • जैनाचार्य श्रीवात्मानन्द-जन्मशताब्दि-स्मारक ईश्वर-सरीखे सर्वमान्यतत्वको निरर्थक समकार सिंहा- मन्यसे उद्घत ।