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अनेकान्त
[चैत्र, वीरनिर्वाण सं०२४६५
अनेकान्तः प्रमाणाते, तदेकान्तोऽर्पिताच्यात् ॥ है। जैन-समाज भी इससे अछूता नहीं है । यदि जैन
अर्थात्-अनेकान्त भी अनेकान्त है। प्रमाण दृष्टि- समाजमें अनेकान्तकी भक्ति होती तो क्या यह सम्भव था को मुख्य करनेसे वह अनेकान्त है और नयाष्टिको मुख्य कि इस युद्धका ऐसा रूप होता ? पद-पद पर द्रव्य-क्षेत्र करनेसे वह एकान्त भी है । इसलिये एकान्तका भी काल-भावकी दुहाई देने वाले जैनशास्त्र क्या किसी उपयोग करना चाहिये । सिर्फ इतना ख्याल रखना सुधारके इसीलिये विरोधी हो सकते हैं कि वह सुधार है या चाहिये कि वह एकान्त असदेकान्त न हो जाय। नया है ? क्या हमारा अनेकान्त सिर्फ इसीलिये है कि वह - एकान्त असदेकान्त तभी बनता है जब वह दूसरे स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षा घटका अस्तित्व और दृष्टिबिन्दुका विरोधी हो जाता है । अपने दृष्टिविन्दुके परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षा घटका नास्तित्व बतअनुसार विचार करता रहे और दूसरे दृष्टिविन्दुका खंडन लाया करे ? क्या उसका यह कार्य नहीं है कि वह यह न करे तो वह सदेकान्त है । इस प्रकार सदेकान्तके रूप- भी बतलावे कि समाजके लिये अमुक कार्य-रीतिरिवाज में एकान्तको भी उपादेय माना गया है, यह अनेकान्त- अमुक-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके लिये अस्ति है और दूसरे की परम अनेकान्तता है । इस प्रकार जैन-दर्शनकी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके लिये नास्ति है। इसलिये यह बहुत उदारता व्यापक हो करके भी कितनी व्यवस्थित और सम्भव है कि धर्मके नाम पर और व्यवहारके नाम पर विचार पूर्ण इसका पता लगता है।
आज जो प्राचार-विचार चल रहे हैं उनमेंसे अनेक हजार ___ मैं ऊपर कह चुका हूँ कि दर्शनका और धर्मका दोहजार वर्ष पुराने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके लिये अस्तिनिकट सम्बन्ध रहा है। जैन-दर्शनका यह अनेकान्त- रूप हों और प्राजके लिये नास्तिरूप हो। मेरा यह कहना सिद्धान्त अगर दार्शनिक क्षेत्रकी ही वस्तु रहे तो उससे नहीं है कि हरएक प्राचार-विचारको बदल देना चाहिये। विशेष लाभ नहीं हो सकता । दार्शनिक समस्याएँ जटिल मैं तो सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि हमको अपने बनी रहें या सुलझ जाएँ इसकी चिन्ता जन-साधारणको आचार-विचार पर अनेकान्त-दृष्टि से विचार करना नहीं होती। जनता तो उसके व्यावहारिक उपयोगको चाहिये कि उसमें क्या क्या प्राजके लिये अस्तिरूप है देखती है, इसलिये अनेकान्तकी न्यावहारिक उपयोगिता और क्या क्या नास्तिरूप है । सम्भव है कल जो अस्ति ही विशेष विचारणीय है।
है वह आज नास्ति हो जाय और कल जो नास्ति था धर्म हो या संसारकी कोई भी व्यवस्था हो, वह इसी वह प्राज अस्ति हो जाय ।। लिये है कि मनुष्य सुख-शान्ति प्राप्त करे सुखशान्तिके परन्तु, जैन-समाजका दुर्भाग्य तो इतना है कि इस लिये हमारा क्या कर्तव्य है और क्या प्रकर्तव्य है और अनेकान्त-दष्टिका म्यावहारिक उपयोग करना तो दूर, उस कर्तव्यको जीवनमें कैसे उतारा जा सकता है और किंतु उस पर विचार करना भी घृणित समझा जाता अकर्तव्यसे कैसे दूर रहा जा सकता है, इसके लिये धर्म है। अगर कोई विदेशी इस दृष्टिसे विचार करके कुछ है, इसी जगह अनेकान्तकी सबसे बड़ी उपयोगिता है। बात कहे तो जैन समाज उसके गीत गा देगा; परन्तु
आज रूदि और सुधारके बीचमें तुमुल युद्ध हो रहा उस रष्टि से स्वयं विचार न करेगा । आज अनेकान्तके यह स्वामी समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्रका वाम-सम्पादक गीत गानेको जैन समाज तैयार है और उनके गीत गाने