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अनेकान्त
[फाल्गुण, वीर-निर्वाण सं० २४६५
उन्होंने ही। विरोधी तो कहाँसे सोचनेमें प्रवृत्त होते, जैनधर्ममें १४ कुलकरोंका होना भी पाया जाता है, उन्हें तो संस्कृति-विध्वंसक एक और जातिसे भी संघर्ष- जिन्होंने कला-कौशल, ज्ञान विज्ञान तथा सामयिक में आना पड़ा, जिसके कारण उन्हें सभ्यता और संस्कृति सिद्धान्तों आदिका प्रसार किया; और ये तीर्थंकरोंसे पूर्व की ही बात नहीं, किन्तु अपने ग्रन्थों तकको सुरक्षित होचुके हैं । अंतिम कुलकरने ही प्रथम तीर्थकरको रखनेके लिए स्वास तहखाने तैयार कराने पड़े ! और जन्म दिया था। हिन्दूधर्मके सतयुग, त्रेता, द्वापर, कल. उनकी वह मनोवृत्ति आज भी सैकड़ों अमूल्य ग्रन्थोंको युगके अनुसार कुलकरोंका युग भोग भूमिया सतयुग हवा तक नहीं लगने देती; हालांकि आजका संसार इस समझा जाता है, जिसके अन्तमें कर्मभूमि शुरू होजाती सम्बन्धमें उतना दुराग्रही नहीं है । आजका संसार ज्ञान- है। तीर्थंकरोंकी योग्यता अवतारों जैसी रहती है, पर वे पिपासु है अथवा परस्पर के आदान-प्रदानको गुण सम- साप्टकत्ता नही माने जाते।। झने लगा है । वैसे भी भारतवर्षके इतिहासके खासे अतिशयोंकी कमी न तो हिन्दूधार्मिक पुस्तकोंमें है पहलको तबदील करनेवाली इन जातियों के इतिवृत्तिको और न जेनधार्मिक ग्रन्थों में ही है । आयुका क्रम हज़ारों अब उपेक्षित छोड़नेका फल होगा-भारतीय इतिहास- वर्षाका जिस तरहसे पल्य और कोड़ा कोड़ी सागर के रूपका अधूग रहना, जो प्रगतिमें बहुत बाधा उपस्थित में हम जैनधर्म में पाते हैं, वैसी ही हजारों वर्षोंकी श्रायुका करेगा । सरसरी तौरसे देखा जाये तो इन धर्मों के अनु- प्रमाण हिन्दूधर्मकी पुस्तकों में भी पाया जाता है। अहिंसारूप समय समय पर हिन्दुधर्म में क्रांति और सुधारकी का सिद्धांत जैन तथा बौद्ध धर्ममें प्रायः एकसा पाया धारा निकलती रही है । यदि जैन और बौद्धधर्मने जो जाता है । परन्तु एकने अपने बाद के कालमें अहिंसाको कुछ किया यह खराब समझा जाने लायक है, तो प्रायः ईश्वरीय रूपमें अभिषिक्त किया और हम यह भी समझने इसी तरहका बहतसा काम मध्यकालीन भारतके सधारक लगे कि जैनधर्मकी अहिंसा अव्यवहार्य है तथा भार साधु संतोने भी किया है-सिक्खोके गुरुप्रोने किया, तवर्षका पतन इस अहिंसावृत्ति ही ने किया । दूसरे धर्ममें महाराष्ट्रके संतोंने किया और हमारे पास वाले युगमें अहिंसाका नाम लेते हुए भी प्रायः किसी भी प्राणीको अपि दयानन्दने भी किया है। हमने बहुतसी नाक भी मनुष्यका पेट भरने के लिए छोड़ा नहीं, तब भी आश्चर्य सिकोड़ी; किन्तु अन्तगं हमें कह देना पड़ा कि हे क्रांति है कि इस अहिंसाका पाठ पढ़ाने वाले किन्तु व्यवहारी कारी सुधारको ! तुम्हारे अप्रिय सत्यमें जो उपकार हिंसक धर्म के अनुयायी भारतवर्ष के बाहर चीन, जापान छिपा है वह भुलाया नहीं जा सकता और विरोधके कोलम्बो, रगून आदिमें करोड़ोकी संख्यामें अब भी पार्य कारण हम तुम्हें मिटा देना उचित नहीं समझते। वह जाते हैं, और शुरू.से आरवीरतक अहिंसाव्रतको पकड़े समय बहुत वर्षों पूर्व चुका है जबकि हमें इन क्रांति- चले आने वाले और अहिंसाकी वास्तविक वृत्तिमें उत्तकारी धर्मोसे बहुत समीपता प्राप्त कर लेनी चाहिये थी। रोत्तर सक्रिय वृद्धि करते जाने वालोंकी समाज संख्या जैनधर्म में हिन्दूधर्मकी तरह उनके खुदके २४ अवतार केवल ११ लाख रह गई है ! भारत के बाहर तो हमारे है, जो तीर्थकर कहे जाते हैं । बौद्धधर्म में भी गौतम दुर्भाग्यसे प्रायः है ही नहीं। हिंदूधर्मम धर्मके नामपर बुद्धके पूर्व २३ और बुद्धोका होना बतलाया जाता है। पीजाने वाली हिंसा या कर्मकाण्डी हिंसाको तथा भापद्