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‘ালা’ স্কার।
(२१) मुनि श्री विद्याविजयजी:
(२४) श्री साहु श्रेयांसप्रसादजी, नजीबाबादः___“'अनेकान्त' का पुनः प्रकाशन भी उतनी ही अनेकान्त'का अंक प्राप्त हुना। पाठ्यसामग्री योग्यता और उपयोगिताके साथ निकलता है जैसे और संकलन बहुत सुन्दर है। आपके संचालनमें कि पहले निकलता था । सारी जैन समाजमें 'अनेकान्त' का इतना उपयोगी और विद्वता पूर्ण यह एक ही मासिक पत्रिका है जो विद्वद् योग्य प्रकाशन होना निश्चय ही था । निःसन्देह यह पत्र खुराक देती है। प्रत्येक लेख खासी खोजपूर्वक और समाजके लिए आदर और मननकी वस्तु बनेगा"। विद्वता पूर्ण निकलता है।"
(२५) श्री० रतनलालजी संघवी, न्यायतीर्थ-विशारद (२२) मुनि श्री न्यायविजयजी देहली
अभ्यापक जैन फिलासोफी जैन गुरुकुल,छोटी सादड़ी___“ अनेकान्त' अपने भूतपूर्व गौरवके साथ "लेख सामग्री और गेट-अप आदि पान्तरिक निकलता है। अपना गौरव और प्रतिष्ठा रख सकने में और बाह्य दोनों दृष्टिसे 'अनेकान्त' वर्तमानमें जैनसमर्थ हो यही हमारी शुभेच्छा है।" समाजका सर्वश्रेष्ठ और सुन्दर पत्र है । गवेषणा
पूर्ण गंभीर संपादकीय लेख पत्रकी आत्मा हैं। (२३) श्री ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी:
आशा है कि आपके तत्वावधानमें पत्र निरन्तर __"इस परमोपयोगी सैद्धान्तिक पत्रका पुनः प्रका
- उन्नति करता हुआ जैनसाहित्य और जैनइतिहासकी शन अभिनन्दनीय है। दोनों ही अंक पढ़ने योग्य
चिरस्थायी महत्वपूर्ण सेवा करता रहेगा।" लेखोंसे भूषित हैं। लेखकोंने सर्व ही लेख बड़े परिश्रमसे लिखे हैं। यह पत्र जिनधर्मकी प्रभावनाका (२६) श्री. प्रो० हीरालालजी एम.ए., एल.एल.बी. व जिनशासनकी महिमा जगतमें प्रगट करनेका अमरावती :साधन है। जिस ढंगसे ये अंक प्रगट हुए हैं उसी 'अनेकान्त' के नवीन दो अंक देखकर अत्यन्त तरह यदि भागेके अंक प्रगट हों व उनमें पक्षपात- आनन्द हुा । जैन पत्र पत्रिकाओं में जिस कमीको की व असभ्य भाषाकी दुर्गन्ध न हो तो यह पत्र प्रत्येक साहित्यिक अनुभव कर रहा था, उसकी गलाबके पुपके समान सर्वको श्रादरणीय होगा। सोलहों श्राना पूर्ति इस पत्र के द्वारा होगी ऐमी श्रा। प्रकाशक लालाजीको कोटिशः धन्यवाद है जो है। यह और भी बड़ी प्रसन्नताकी बात है कि याव इसके खर्च के घाटेवा भार स्वीकार करते हैं। सूरजभानजी वकील जैसे कुशल, अनुभवी महा
मूल्य २॥) वार्षिक है। हर एक स्वाध्याय प्रेमी- रथियोंको आपने पुनः साहित्य-सेवामें खींचा है। को अवश्य प्राहक होजाना चाहिये, जिससे प्रकाशक- मैं इस पत्रिकाको चिरंजीवी देखनेका अभिलापी को घाटा न सहना पड़े।"