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वर्ष २, किरण [६]
नेकी करके कुए में फेंकनेवाले ऐसे ही माई के लालोंमें देहली के राजा हरसुखराय और उनके सुपुत्र मुगनचन्दजी हुए हैं। सन् १७६० में देहलीके धर्मपुरे मोहल्ले में राजा हरसुखराजजीने एक अत्यन्त दर्शनीय भव्य जिन मन्दिरका निर्माण कराया, जिसकी लागत उस समयकी ८ लाख कृती जाती है। यह मन्दिर वर्ष बनकर जब तैयार हुखा तो एक दिन लोगोंने सुबह उठकर देखा कि मन्दिरका सारा काम सम्पूर्ण हो चुका है केवल शिखर पर एक दो रोज़का काम और बाकी था, किन्तु तामीर बन्द कर दी गई है और राजा साहब, जो सर्दी गर्मी बरसात में हर समय मार-मज़दूरों में खड़े काम कराते थे, आज यहाँ नहीं है ।
लोगोंको अनुमान लगाते देर न लगी। एकसज्जन बोले - "हम पहले ही कहते थे इस मुसलमानी राज्यमें जब कि प्राचीन मन्दिर ही रखने दूभर हो रहे हैं, तब नया मन्दिर कैसे बन पाएगा ?"
दूसरे महाशय अपनी अक्लकी दौड़ लगाने हुए बोल उठे "खेर भाई राजा साहब बादशाह के खजांची हैं, मन्दिर बनानेकी अनुमति ले ली होगी। मगर शिव मन्दिर कैसे बनवा सकते थे ? अगर मन्दिरका शिखर बनानेकी श्राज्ञा दे दी जाय, तो मस्जिद और मन्दिर अन्तर ही क्या रह जायगा ?"
राजा हरसुखराय
तीमने टकल लगाते हुए कहा- "वेशक मन्दिरकी शिखरको मुसलमान कैसे सहन कर सकते हैं ? देखो न, शिखर बनता देख फौरन तामीर रुकवादी ।"
किसीने कहा--"अरे भई राजा साहबका क्या बिगड़ा, वे तो मुँह छुपाकर घरमें बैठ गये । नाक तो हमारी कटी !! भला हम किसीको अब क्या मुँह दिखाएँगे इस फजी से तो यही बेहतर था कि मन्दिरकी नींव ही न खुदवाते !!! "
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जिस प्रकार म्युनिस्पैलिटीका जमादार ऊँचे-ऊँचे महल और उनके अन्दर रहने वाले भव्य नर-नारियोंको न देखकर गन्दगीकी ओर ही दृष्टिपात करता है, उसी प्रकार छिद्रानुवेधी गुण न देख कर अवगुण ही खोजते फिरते हैं । जो कोरे नुक्ताचीं थे वे नुक्ताचीनी करते रहे; मगर जिन्हें कुछ धर्मके प्रति मोह था उन्होंने सुना तो अन्न-जल छोड़ दिया। पेट पकड़े हुए राजा हरमुग्वराय जीके पास गये और श्रोमं श्रोंसू भर कर अपनी व्यथा को प्रकट करते हुए. बोले
" आपके होते हुए भी जिन-मन्दिर अधूरा पड़ा रह जाय, तत्र तो समझिये कि भाग्य ही हमारे प्रतिकुल है
| आप तो फर्माते थे कि बादशाह सलामतने शिखर बनाने के लिये खुद ही अपनी ख्वाहिश जाहिर की थी; फिर नागहानी यह मुसीबत क्यों नाज़िल हुई !"
राजा साहबने पहले तो टालमटूलकी बातें कीं फिर मुंह लटकाकर सकुचाते हुए बोले- “भाइयोंके श्रागे
पर्दा रखना भी ठीक नहीं मालूम होता, दरअसल बात यह है कि जो कुछ थोड़ीसी यूंजी थी, वह सब ख़त्म हो गई, कर्ज में किसीसे लेनेका आदी नहीं, सोचता हूँ बिरादरी चन्दा करलूं, मगर कहने की हिम्मत नहीं होती। इसीलिये मजबूरन तामीर बन्द कर दी गई है ।"
सुना तो बांछें खिल गई - " बस राजासाहब इतनी जरीमी बात !!" कहकर यागन्तुक सज्जनोंने अशर्फियोंका ढेर लगा दिया ! और बोले— “श्रापकी जूतियाँ जाएँ चन्दा माँगने । हम लोगोंके क्षेते आपको इतनी परेशानी !! लानत है हमारी ज़िन्दगी पर !!!
राजासाहब कुछ मुस्कराते श्रीर कुछ लजाते हुए बोलेबेशक, मैं अपने सहधर्मी भाइयोंसे इसी उदारताकी श्राशा रखता था । मगर इतनी रकमका मुझे करना क्या