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अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६५
'न की जा सके । लेकिन मेरी दृष्टि में यह धृष्टता कदापि वह मैंने किया ही,-श्रोत !"अब..१...
क्षम्य नहीं ! मैं उसका परित्याग करता हूँ ! महिर्षी-पद दुर्गा-सी कठोर महारानी सिंहिका-जिनके तेजके पापिस लिया जाए !!'
आगे शत्रुकी परछाई तक न टिक सकती थी-अविरलकिसकी ताब?-किसकी हिम्मत ? जो महाराजकी अाँसुत्रों से रो पड़ीं ! शत्रु-दलके सामने डटा रहनेवाला श्रांशाके खिलाफ जबान हिलाता !
साहस पानी बन चला ! पति-प्रेमके आगे वह हार सब चुप !
मान गई ! पौरुष, बल, कठोरता और धीरताके पटको राज-श्राश ! अटलनीय-राज-श्राशा !-और महा- फाड़कर नारीत्वकी कोमल-भावना प्रगट हो गई ! रांनी परित्यक्त करदी गई!
वह रोने लगीं ! विवशताका श्रृंगार यही तो
. है ! परित्यक्त-जीवन ! नीरस-जीवन !! मृत्युके ही तो (४)
उपनाम हैं !!! दिन बीत रहे थे--
पर न अब उमंग शेष थीन उत्साह ! एक लम्बी निराशा, एक कसक, और प्रात्मग्लानि महारानीके 'वह मुझे भूल सकते हैं, लेकिन मैं उन्हें एक साथ थी ! उसका समग्र-वैमव, दरिद्र बन चुका था ! मिनिटको भी भूल सकूँ, यह असम्भव ! उनका तिरिउसकी 'श्राशा' का नाम अब 'पुकार' था ! उसके मुख- स्कार भी मुझे प्यारसे अधिक है। उनकी खुशी मेरा का तेज़ अब करुणत्व में परिवर्तित हो चुका था! स्वर्ग है ! उनकी तकलीफ़ मेरी मौत ! बोलो १-बोलो
अब 'दिन' वर्ष बनकर उसके सामने आता है ! ...?- उन्हें क्या हुआ है ?--क्या कष्ट है ?--महाकभी-कभी यह सोचती है--'क्या नारीका जीवन सच- रानीके प्रेम-विव्हल हृदयने प्रश्न किया ! मुच दूसरे पर अवलम्बित है ?--उसका अपना कुछ भी 'दाह-रोग !'--सेविकाने परस्थिति सामने रखी !नहीं १ दूसरेकी खुशी ही उसकी खुशी है ! उसका 'अगणित-भिषग्वरोंने बहुमूल्य औषधियोंका सेवन निश्चित उद्देश्य ही नहीं १-कर्तव्य..?—यही कि कराया है ! लेकिन लाभके नामपर महाराजकी एक
आँखें मूंदकर-दूसरेका अनुकरण करे ! फिर चाहे भी 'श्राह !'बन्द नहीं हुई ! जीवन-श्राशा संकटमें है ! किसीका कितना ही अनिष्ट क्यों न हो।...
बड़ी वेदना है--उन्हें ! क्षण-भरको शान्ति नहीं !...." बाहरे, नारी-जीवन !...
'दाह-रोग ?... महाराजको कष्ट ?--जीवनमें इतना जटिल, इतना परतन्त्र !'
सन्देह -महारानी कभी उसके विचार दूसरी-दिशाकी ओर बहते- हाँ ! ऐसी ही बात है !'-परिचारिकाने दृढ़ताके 'बड़ी गहरी-भूल हुई मेरी ! मुझे इन झगड़ोंमें पड़ना साथ कहा । क्षण-भर महारानी चुप रहीं ! आँखें मूंदें ही क्यों था ! मेरा इनसे मतलब ?-मुझे महाराजकी कुछ सोचती रहीं ! फिर बोलीप्राशाके अतिरिक्त और सोचना ही क्या ? यहीं तक है 'सखी ! प्रधान-सचिबसे कहो, अगर मेरा सतीत्व मेरा कार्यक्षेत्र !.."भागे बदनाहीतो अपराध था! निदोष है! महाराजके प्रति ही मेरा सारा प्रेम रहा है