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वर्ष २, किरण ६]
नारीत्व
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तो-मेरी अंजुलीके जलके छींटे उन्हें प्रारोग्य यही सतीत्वकी परीक्षा हो !' करेंगे ! जाओ, सीघ्र जाकर इसकी व्यवस्था करो ! -और ततारपनीने उनी जलसेकर मुझे विश्वास है, मेरा सतीत्व, मेरी परीक्षाके समय काम महाराजको शीटे दिए!
. आयेगा! 'जो हुक्म !!
महाराज उठ बैठे ! जैसे उनकी सारी वेदना मंत्रशक्ति द्वारा खींचली गई हो ! मुँहपर उत्साह, हर्ष एक
साथ खेल उठे ! शरीर क्रान्तिपूर्ण, नीरोग ! परीक्षा-भूमि पर
सब, पाचर्यचकित नेत्रोंसे देखते-बर में गए । राज्य-दरबार में आज उपस्थिति-नित्यकी अपेक्षा श्रद्धासे मस्तक झुक गए ! कहीं अधिक थी ! नगरके सभी प्रमुख व्यक्ति मौजूद महाराज-प्रेमोन्मत्त महाराज--राग्या त्याग महाथे ! दर्शकोंकी भीड़ उमड़ी पड़ रही थी! एक कौतुहल रानीके समीप पाए ! प्रसमता भरे गद्-गद्-स्वरमें था-'जिस कठिन-रोगको उग्र-श्रौषधियाँ नष्ट न कर बोले-'धन्य सतीत्व-सामर्थ्य ! मुझे क्षमा करो, मैंने सकीं, उसे सतीत्व-पातिव्रत-धर्म तत्काल दूर कर अपराध किया है ! भूल की है मैंने !...मैं नहीं जानता दिखायेगा!!
था-कि वीर-रमणियाँ दूषित-विकारोंसे दूर हट जाती - ज़िम्मेदार राज-कर्मचारी बैठे हुए थे। एक ओर है!... महाराज शय्याशन पर लेटे, वेदनाकी आहें भर महारानीका वज-हृदय पानी होगया। प्रेमोकके रहे थे!
मारे कण्ठ अवरुद्ध होगया। आँखोंमें प्रसन्नताका . . ."मलिन-वेश, परित्यक्ता महारानी सिंहिकाने, पानी छलछला पाया । आदर्श-स्थापित करने के बहुत-दिन बाद आज दरबारमें प्रवेश किया ! उनके दानकी मुसीबतें विस्मरण होगई ! हर्ष-पूर्ण-स्वर मुखपर श्राज दिव्य-तेज झलक रहा था !
में बोलीं-- ___ सब-लोग उठ खड़े हुए! महारानीने आगे बढ़, ..."महाराज!' अन्तःकरणकी शुद्धता-यूर्वक गंभीर-स्वरमें कहा- महाराजने स्वर्ग-मुखका अनुभव करते हुए उत्तर 'अगर मेरा सतीत्व अक्षुण्ण रहा हो, निदोष हो ! तो दिया-'प्रिये !' इस प्रासुक-जलके छींटे महाराजको भारोग्य करें! तूपति-शलि !!!
जे परनारि निहारि निलज्ज, हँसै विगसे बुषिहीन बड़ेरे, जंठनकी जिमि पातर देखि, खुशी उर कूकर होत घनेरे । है जिनकी यह टेव सदा, तिनको इह भव अपकीरति है रे,
परलोक विषे हद दण्ड, करै शत खरड सुखाचल के रे॥