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अनेकान्त
[चैत्र, वीर निर्वाण सं० २४६५
म्वोपनवृत्ति २५०० श्लोक प्रमाण है। सम्पूर्ण श्वेता- उपलब्ध अंश है। म्बरीय न्याय साहित्यमें वादिदेवसरिके न्याय सूत्रों इनकी न्यायविषयक बतीसियोंमेंसे एक “अन्य(प्रमाणनयतत्त्वालोक) के अतिरिक्त केवल यहीन्याय- योगव्यवछेद" है और दूसरी "अयोगव्यवछेद" है । अथ सूत्रबद्ध है। यादिदेवसूरिके न्यायसूत्रोंकी अपेक्षा दोनोंमें प्रसादगुणसंपन्न ३२-३२ श्लोक हैं । उदयनाइस ग्रन्थ के सूत्र अधिक छोटे, सरल, स्पष्ट और पूर्ण चार्यने कुसुमांजलिमें जिस प्रकार ईश्वरकी स्तुतिके अर्थके द्योतक हैं।
रूपम न्याय-शास्त्रका संग्रंथन किया है, उसी तरहसे प्राचार्य हेमचन्द्र गौतमकी श्रान्हिक पाली पंचा- इनमें भी भगवान् महावीर स्वामीकी स्तुतिक रूपमें ध्यायीकी रचनाशैलीके अनुसार "जैन न्याय-पंचा- घट-दर्शनोंकी मान्यताओंका विश्लेषण किया गया ध्यायी" के रूप में प्रमाणमीमांसाकी रचना करना है। श्लोकोकी रचना महाकवि कालिदास और स्वामी चाहते थे। किन्तु यह ग्रंथ पांच अध्यायोंमें समाप्त शंकराचार्यकी रचना-शैलीका स्मरण कराती है। हुश्रा था या नहीं; अधरा ही रह गया था, या शेप दार्शनिक श्लोकोंमें भी स्थान २ पर जो विनोदमय अंश अंश नष्ट हो गया है, अादि बातें विस्मृतिके गर्भमें देखा जाता है; उससे पता चलता है कि प्राचार्य हेममंनिहित हैं। इसमें गौतमकी रचनाशैली मात्रका चन्द्र हंसमुख और प्रसन्न प्रकृति के होगे । अयोगव्यवअनुकरण किया गया है न कि विषयका । शब्दोंके छेदका विषय महावीर स्वामीमें "श्राप्तत्व सिद्ध करना" लक्षणों में भी पर्याप्त भिन्नता है । विषयकी दृष्टि से है और अन्ययोगव्यवछेदका विषय अन्य धर्म प्रवर्तकोंप्रमाण, अनध्यवसाय, विपर्यय, वस्तु, प्रत्यभिज्ञान, में "श्राप्तत्वका अभाव सिद्ध करना" है । अन्ययोग व्याप्ति, पक्ष, दृष्टान्ताभास, दूषण, जय, पराजय, व्यवछेद पर मल्लिषेणसरिकी तीन हजार श्लोक प्रमाण अवग्रह, हा, अवाय, धारणा. मनःपर्यायशान, अवधि- स्याद्वाद-मंजरी नामक प्रसादगुणसंपन्न भाषामें सरस जान, द्रव्येन्द्रिय आदि विषय गौतम सत्रोंमें सर्वथा और सरल व्याख्या है । जैन न्यायसाहित्यमें यह व्यानहीं है । गौतमने ५ हेयामास माने हैं; जब कि जैन- ख्या ग्रंथ अपना विशेष और आदरपूर्ण स्थान रखता न्यायमें २ ही माने गये हैं। इसी प्रकार मान्यताप्रोंकी है। इस व्याख्यासे पता चलता है कि मूलकारिकाएँ अपेक्षासे भी गौतम-सत्रोंमें और इसमें पर्याप्त (अन्ययोगव्यवछेद-मूल ) कितनी गंभीर, विशद अर्थभिन्नता है । "प्रमाण" के लक्षण में "स्व" पदके संबंध वाली और उच्चकोटि की हैं। हेमचन्द्रकी प्रतिमापूर्ण में प्राचार्य हेमचन्द्रने काफी ऊहापोह की है और अपनी स्वाभाविक कलाका इसमें सुन्दर प्रदर्शन हुआ है। उल्लेखनीय मतभिन्नता स्पष्ट शब्दों में प्रदर्शित की है।
सवझता श्राचार्य श्री की विशेषतामय नैयायिक प्रतिभा के इसमें इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र, व्याकरण, काव्य, पद-पद पर दर्शन होते हैं। यदि सौभाग्यसे यह संपूर्ण कोष, छन्द, अलंकार, वैद्यक, धर्मशास्त्र, राजधर्म, पाया जाता तो जैन-न्यायके चं टीके अन्योंमेंसे नीतिधर्म, युद्धशास्त्र,समाजव्यवस्थाशास्त्र, इन्द्रजाल विद्या, होता । और प्राचार्य भीकी हीरेके समान चमकने शिल्पविद्या, वनस्पतिविद्या, रत्नविद्या, ज्योतिषविद्या, वाली एक उज्ज्वल कृति होती । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण सामुद्रिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, धातुपरिवर्तनविद्या, योग