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ॐ महम्
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नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वर्ष २
सम्पादन-स्थान-वीर-सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा, जि.सहारनपुर प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० ब० नं० ४८, न्यू देहली
चैत्र शुक्ल, वीरनिर्वाण सं० २४६५, विक्रम सं०१६६६
किरण
नित्यायेकान्तगर्तप्रपतनविवशान्प्राणिनोऽनर्थसार्थादुद्धर्तुं नेतुमुथैः पदममलमलं मंगलानामलंध्यम् । स्याद्वाद-न्यायवर्ती प्रथयदवितथार्थ वचः स्वामिनोदः प्रेक्षावत्त्वात्प्रवृत्तं जयतु विघटिताऽशेषमिथ्याप्रवादम् ।।
-प्रष्टसहस्या, विद्यानंदाचार्य: स्वामी समन्तभद्रका वह निर्दोष प्रवचन जयवन्त हो-अपने प्रभावसे लोकहृदयोंको प्रभावित करे-जो नित्यादि एकान्तगर्तोमें-वस्तु कूटस्थवत् सर्वथा निस्य ही है अथवा क्षण-क्षणमें निरम्बय विनाशरूप सर्वथा क्षणिक ही है, इस प्रकारकी मान्यतारूपी एकान्तखडोंमें-पड़ने के लिये विवश हुए प्राणियोंको अनर्थ-समूहसे निकालकर मंगलमय उच्चपदको प्राप्त कराने के लिये समर्थ है, स्यादाद न्यायके मार्गको प्रख्यात करने वाला है, सत्यार्थ है, अलप्य