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वर्ष २, किरण ५ ]
अदृष्ट शक्तियां और पुरुषार्थ
मद करने, बड़ाई गाने वा भेंट पूजासे खुश होकर चाहके चक्कर में पड़ जानेसे ही जीवको दुःख होता है, हमारी इच्छानुसार काम करनेवाला मानलेना मढता जितनी-जितनी विषय कपाएँ भड़कती हैं उतना-उतनाही नहीं तो और क्या है ? मनुष्यकी श्रेष्ठता तो उसकी जीवको तड़पाती हैं और जितनी-जितनी मन्द होती हैं बुद्धिसे ही है, नहीं तो उसमें और पशुमें अन्तर-ही उतनी-उतनीही जीव को शान्ति मिलती है। अतः क्या है ? बुद्धिबलसे ही यह छोटासा मनुष्प बड़े-बड़े विषय-कपाय ही जीवात्मा के विकार हैं, जिनके द्र होनेसे हाथियों को पकड़ लाकर उनपर सवारी करता है, महा ही इसको परम शान्ति मिल सकती है। इन विषय कषायों भयानक सिंहोंको पिंजरे में बन्द करता है, पहाड़ोंको के कम करने तथा सर्वथा दूर कर देने के साधनोंका नाम तोड़ता है, गंगा जमुना जैमी विशाल नदियों को बसमें ही धर्म है। करके नहरी द्वारा अपने खेतों तक वहा लेजाता है, जितने भी धर्म इस समय संसार में प्रचलित होरहे हैं भाग पानीको बसमें करके उसकी भापसे हज़ारों काम वे सब धर्म के इस सिद्धान्तको मानने वाले ज़रूर है, लम्बे चौड़े ममुद्रकी छातीपर करोड़ों मन बोझके भारी- परन्तु किसी एक ईश्वर वा अनेक देवी देवताओंकी जहाज़ चलाता है, इसही प्रकार धरतीपर रेल और खुद मुख्तारी कायम रखने के कारण जिस प्रकार वे सांसाआकाश में विमान उड़ाता फिरता है, महा भयानक रिक कार्योंकी सिद्धि के वास्ते उनकी खुशामद करना, कड़कती हुई बिजली को बसमें करके उसके द्वारा क्षण- बड़ाई गाना और भेंट चढ़ाना श्रादि ज़रूरी समझते भर में लाखों कास ख़बर पहुँचाता है, घर बैठा दूर-दूर हैं। जिसमें वह अदृश्य शक्ति प्रसन्न होकर उनका कार्य देशों के गाने सुनता है, अन्य भी अनेक प्रकार के चम- सिद्ध करदं उसी प्रकार प्रात्मशुद्धिके वास्ते भी यही त्कारी कार्य करता है । ये सब मनुष्यने किमी देवी- तीब बताते हैं। परन्तु जिस प्रकार खुशामद करने देवताको मानकर वा किसी मन्त्र बादीकी खुशामद और गिड़गिड़ान से संसारका कोई कार्य सिद्ध नहीं करके सिद्ध नहीं किये हैं, किन्तु अपने बुद्धिबलसे आग होता, जो कुछ होता है वह वस्तु स्वभावानुसार पुरुषार्थ पानी आदि वस्तुओंके स्वभावको पहचानकर ही सम्पन्न करनेमे ही होता है, उसी प्रकार अस्मिक उन्नति भी महज़ किये हैं।
खुशामदों और प्रार्थनासे नहीं हो सकता है, किन्त यह सब पुरुषार्थका ही .न है । अकर्मण्यको हिम्मत के माथ कापायोंके कम करनेसे ही होती है। यदि गिड़गिड़ाने और किसी देवी-देवता या ईश्वर के आगे हम खेतमं अनाज पैदा करना चाहें तो नि हाथ पसारकर भीख मांगनेसे कुछ नहीं मिलता है । अतः जोतना बोना यादि खेत के सबही पुरुषार्थ करने पड़ेंगे, जेन-धर्मकी सबसे पहली शिक्षा यही है कि अाख खोलो, घर बैठे किनी अदृष्ट शक्तिकी खुशामद करते रहनसे मनुष्य बनी, बुद्धिसे काम लो, वस्तुस्वभावको खोजी, तो अनाज पैदा नहीं होजायगा। यही हाल आत्मोन्नति उसहीके अनुसार चलो, स्वावलम्बी बनी, और पूरी का है, उसमें भी जो कुछ होगा अपने ही पुरुषार्थसे होगा। हिम्मत के साथ पुरुषार्थ करने में लगो, न किमीम कुछ हां, अात्मोन्नति का उत्साह हृदयमें लाने के वास्ते मांगों, न डरो, सबके साथ मिल जुल कर रहो, यही उन महान पुरुषोंकी बड़ाई ज़रूर गानी चाहिए, तुम्हारा मनुष्यत्व है, यही तुम्हारा गृहस्थ जीवन हैं। जिन्होंने महान् धर्य और साहस के साथ अपनी विषयइसही प्रकार आत्मिक उन्नति के वास्ते भी आत्माके असली कपायों पर विजय पाकर अपनी प्रात्माको शुद्ध किया स्वभावको जानो, उसमें जो विकार रहा है उसको है-सच्चिदानन्द पद प्राप्त कर लिया है-अथवा जो इस पहचानो और वह जिस तरह भी दूर हो सकता हो उम ही प्रकारकी महान् साधनामों में लगे हुए हैं। उनके कोशिश में लग जाओ। क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक महान कृत्योंको याद कर करके हमको भी ऐसी महा कपायोंके वश में हो जानसे और इन्द्रियों के विषयोंकी साधनाश्रीक करने का हौसला, उत्साह, तथा साहस